गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य (तीसरा और चौथा अध्याय)
“स्वधर्म, सुख का आधार”
The Great Geeta Episode No• 029
कर्म – अकर्म – विकर्म
श्रीमदभगवदगीता के आज के इस सत्र में ध्यान योग के विषय में आगे के अध्यायों का वर्णन करेंगे
एक और महत्त्वपूर्ण प्रशन जो अर्जुन पूछता है कि
परमात्मा के अवतरण को कौन देख और समझ सकता है ?
भगवान ने कहा कि केवल तत्वदर्शी अर्थात् जिसने ज्ञान को समझा है , तत्व को समझा है और तपस्या के द्वारा जो पवित्र बनते हैं वे दिन रात भय से मुक्त्त रहते हैं , वह मेरे इस जन्म को और कर्म को देख सकते हैं ! अर्थात् वो मेरा साक्षात्कार कर सकता है ! आत्म साक्षात्कार करने वाला ही इस अविर्भाव को समझ पाता है कि परमात्मा किस अनुरागी में अवतरित होते हैं !
परमात्मा ने अपने अवतरण होने के विषय में और रहस्यों को स्पष्ट किया है ! उसके बाद जैसे आगे का आशीर्वाद , भी सूक्ष्म में समाया हुआ था ! भगवान कहते हैं कि
हे पार्थ ! जो मुझे जितनी लगन से और जैसे भजन करते हैं अर्थात् याद करते हैं , में भी उनको उतना ही सहयोग देता हूँ ! साधक की श्रद्धा ही उसके लिए कृपा बनकर उसे मिलती है !
अब यहाँ पर कई बार मनुष्य के मन में प्रशन उठता है कि भगवान भी ” जैसे को तैसा ” करते हैं कि जो जितना उसको याद करेगा उसी को मदद मिलेगी बाकी को मदद नहीं करेंगे ?
यहाँ ये भाव नहीं है ! परमात्मा कभी भेद भाव नहीं कर सकता है ! लेकिन यहाँ भाव ये है कि जब हम ईश्वर को याद करते हैं तो हम अपने अन्दर एक पात्रता विकसित करते हैं ! जिसके अन्दर जितनी पात्रता होती है , उतनी वो परमात्मा की मदद को स्वीकार करता है अर्थात् ग्रहण करता है !
परमात्मा की मदद व सहयोग सारे संसार की आत्माओं के लिए है ! लेकिन जितनी व्यक्ति की पात्रता होती है , उतनी ही वो उस शक्त्ति को अपने अन्दर समा सकते है ! वो सहयोग जीवन में अनुभव कर सकता है !
कई बार लोग पूछते हैं कि भगवान को याद करने से क्या फायदा होगा ?
भगवान को याद करने से हम अपने अन्दर वो पात्रता विकसित करते है जिससे उसके सहयोग का जीवन में अनुभव कर सकते हैं ! भगवान ने फिर आगे कहा
कि मेरे अनुकूल बरतने वाले लोग इस मनुष्य शरीर में दैवी संस्कारों को बलवती बनाते हैं और जीवन में कभी भी असफल नहीं होते हैं ! संसार में भी जैसे कहा जाता है कि जिसके जैसे संस्कार होते हैं वैसे ही वो जीवन में आगे बढ़ता है ! जिसके संस्कारों में दिव्यता है वो दिव्यता के आधार पर अपने जीवन को सशक्त्त बनाते हैं और सफल हो जाते हैं !
क्योंकि मनुष्य जीवन में भय कब उत्पन्न होता है ?
जब उसके जीवन में उसके संस्कार , उसके कर्म सही नहीं होते हैं तो ऐसे कर्म उसको भयभीत करते हैं ! जितना व्यक्त्ति का संस्कार श्रेष्ठ होता है और दिव्य होता है उतना वो भीतर से सशक्त्त होता है ! तो इस तरह एक प्रकार का परमात्मा का वरदान अनुभव कर सकते हैं !
जितना हम अपने संस्कारों का दिव्यीकरण करते हैं , उतना ही हम जीवन में सशक्त्त होकर आगे बढ़ते हुए कभी असफल नहीं होते हैं !
भगवान ने आगे कहा कि
चारो वर्णों की रचना भी इन्हीं गुणों और संस्कारों के आधार से होती है !
भगवान कभी किसी को ये वर्ण में जाओ…. ये वर्ण में जाओ ….ऐसे नहीं भेजता है ! लेकिन मनुष्य के जैसे गुण और संस्कार होते हैं वह उसी के आधार पर उस वर्ण में स्वतः ही चला जाता है ! मनुष्य अपने कर्मों के द्वारा स्वतः ही अपने आप चारो भागों में बट जाता है ! आज भले जन्म से कोई ब्राह्यण क्यों न हो ! लेकिन अगर उसके संस्कार शुद्र के सामान हैं , तो वह अपना अगला जन्म निश्चित करता है कि हमें किस वर्ण में और कहाँ जाना है ! इसलिए मनुष्य को अपने संस्कारों के ऊपर ही जागृति और ध्यान रखने की आवश्यकता है !
इसी के आधार पर भगवान ने आगे कर्मों की गुह्य गति को इस प्रकार बताया है कि
हे अर्जुन ! कर्म की गति अति गुह्य है !
कर्म क्या है ? अकर्म क्या है ? विकर्म क्या है ?
इसको समझना आवश्यक है ! तभी तुम कर्म बन्धन से मुक्त्त हो सकते हो ! फिर कर्म, अकर्म और विकर्म के बारे में बहुत ही अच्छी तरह से समझाया है !
जो मनुष्य कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म को देखता है वो बुद्धिमान योगी है
इसका भाव क्या है ? कर्म और अकर्म का पहले भेद तो पता होना चाहिए !
कर्म किसको कहा जाता है और अकर्म किसको कहा जाता है ?
कर्म तो हम सभी समझ सकते हैं कि इस संसार में अपने संस्कारों के आधार पर हम जो भी कार्य करते हैं उसे कर्म कहा गया ! जिस कर्म का फल नहीं होता है उसे अकर्म कहा जाता है !
जैसे आज हमने एक बीज बोया , ये कर्म मैने किया ! उस बीज के अंकुरित होने से पौधा निकला ! वो पौधे से धीरे धीरे वृक्ष बना और वृक्ष के ऊपर फल लगे ! फल को तोड़कर में खाता हूँ , तो दोनों कर्म में खुद ही कर रहा हूँ ! बीज बोने का कर्म भी मैने ही किया और बीज से जो वृक्ष निकला , वृक्ष पर जो फल लगे , उसको तोड़ने का कर्म भी में ही करता हूँ ! बीज बोना भी कर्म है , फल तोड़कर खाना भी कर्म है..... दोनों कर्म में कोई अन्तर है या नहीं ? बीज बोने का जो कर्म है , वह श्रेष्ठ कर्म है , क्योंकि एक बीज बोने से हमें हज़ारों फल की प्राप्ति होती है ! इसलिए ये कर्म श्रेष्ठ है ! लेकिन फल तोड़कर जो हमने खा लिया वो सन्तुष्टि है ! उसका आगे कोई फल नहीं मिलता है ! उसको कहा जाता है अकर्म ! जिस कर्म का फल नहीं है , उसको अकर्म कहा जाता है