E.30 सभी यज्ञों में श्रेष्ठ यज्ञ कौन सा है ?

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गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य (पाँचवां और छठाा अध्याय )

“परमात्म-अवतरण एवं कर्मयोग”

The Great Geeta Episode No• 030

ईर्ष्या और यज्ञ

कई बार लोग कहते हैं कि हमें दूसरों के लिए ईर्ष्या नहीं है !

लेकिन लोग हमारे लिए ईर्ष्या करते हैं तो क्या किया जाए ?

जो ईर्ष्या से परे है वो द्वंदों से अतीत है ! जहाँ ईर्ष्या होती है , वहीं द्वंद्व आरम्भ हो जाता है ! मुझे किसी के लिए ईर्ष्या नहीं है ! लेकिन दूसरा जब मेरे प्रति ईर्ष्या करता है , तो अन्दर द्वंद्व (Duality) चलता है ! तब अपने मन को कैसे शान्त रखें ?

लेकिन यहाँ पर सोचने की बात है कि ईर्ष्या कब उत्पन्न होता है ?

जब किसी भाग्य बहुत सुन्दर होता है तो उसको देखकर के ही लोग ईर्ष्या करेंगे ! अब मैने जो भाग्य प्राप्त किया उसे मैने अपने कर्मों से प्राप्त किया , उससे जो भाग्य मैने प्राप्त किया उसके प्रति यदि कोई ईर्ष्या करता है, ईर्ष्या के वश उल्टी-सीधी बातें करता है मेरे विषय में, तो उसके ईर्ष्या करने से और उल्टी सीधी बात करने से क्या मेरा भाग्य परिवर्तन हो जाएगा ?

जो भाग्य हमने अपने कर्मो से बनाया है उसको मिटाने की ताकत किसी की भी नहीं है ! स्वयं भगवान भी उस भाग्य को मिटा नहीं सकते हैं फिर इंसान की क्या सामर्थ्य है ?

अगर मिटाने की ताकत है तो किसी और में नहीं , सिर्फ मेरे में है ! किसी के ईर्ष्या करने से मेरा भाग्य मिटने वाला नहीं है यह याद रखो ! निश्चिंत रहो ! द्वंद्व में नहीं आओ कि ये ऐसा बोल रहा है ! ये वैसा बोल रहा है ये ऐसा कर रहा है ! ये वैसा कर रहा है ! इसलिए मेरे भाग्य पर प्रभाव पड़ रहा है.... नहीं ! किसकी बोलने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ! जो भाग्य हमने , अपने कर्मो से प्राप्त किया है , वह किसी इंसान की ताकत नहीं , जो उसको खत्म कर सके !

वह जब खत्म होते हुए दिखाई देता है , तो उसको खत्म करने की शक्त्ति सिर्फ और सिर्फ मुझमें है ! वो मैं कैसे खत्म करता हूँ ?

किसके उल्टे- सीधे बोल के आधार से , जब मैं अपने मन में नकारात्मक भावनाओं को उत्पन्न करता हूँ नकारात्मक विचारों को क्रियेट ( create ) करता हूँ और उस नकारात्मक विचारों की रचना करने से जो कर्म हमने आरम्भ किए , उसी से वो भाग्य की लकीर लगने लगती है ! मेरे अपने विचार जब गलत शुरू हो जाते हैं , निगेटिव जब चलने शुरू हो जाते हैं , तब हम उसको लकीर लगाना आरम्भ करते हैं !

इसलिए हमें अपने विचारों पर बहुत ध्यान देना है ! क्योंकि जैसा आप सोचेंगे वैसा आप करेंगे ! विचारों के आधार पर ही व्यवहार होता है ! विचारों के आधार से ही भावनायें जागृत होती हैं ! यदि विचार गलत हो गये तो भावनायें भी गलत हो जायेंगी ! भावनायें गलत हो गयीं तो व्यवहार गलत होंगे ! यह गलत व्यवहार हमारे भाग्य को लकीर लगाना आरम्भ कर देता है ! बाकि किसके बोलने से मेरा भाग्य बदल नहीं सकता !

इसलिए क्या करना है …!

इसलिए आप निश्चिंत रहो , द्वंद्व में नहीं आओ ! मुझे तो किसी के प्रति ईर्ष्या नहीं है , लेकिन जब दूसरों को मेरे प्रति ईर्ष्या आती है तो मैं क्या करूँ ? 
  • आप निश्चिंत रहो, किसी आत्मा की ताकत नहीं है, आप के भाग्य को मिटाने की !
  • हमें अपने विचारों के ऊपर बहुत अटेन्शन देना है !
  • जितना नकारात्मक विचार हम करेंगे उतना हम अपनी आंतरिक परेशानियों को बढ़ाते हैं !
  • जितना ज्ञानयुक्त्त बातों को जीवन में अपनायेंगे उतना हमारा मन और बुद्धि तेज होती जायेगी ! उसकी शक्त्ति और क्षमता बढ़ने बढ़ने लगेगी !
  • इसलिए व्यर्थ की बातों को मन में पकड़कर नहीं रखो !

अर्जुन ने भगवान से और महत्त्वपूर्ण प्रश्न पूछा कि सभी यज्ञों में श्रेष्ठ यज्ञ कौनसा है ?

Hawan


भगवान कहते हैं कि

हे अर्जुन ! सर्व यज्ञों में ज्ञान यज्ञ अति श्रेष्ठ है ! ज्ञान का मनन चिंतन करो ! इससे हमारी बुद्धि में शक्त्ति आयेगी ! क्योंकि ” ज्ञान में शक्त्ति है ” तो सभी यज्ञ में ज्ञान यज्ञ अति श्रेष्ठ है !

क्योंकि ज्ञान माना समझ , समझ से जब हम अपनी आत्मा के शुद्धिकरण के प्रोसेस में लगते हैं तो उससे परमकल्याणकारी और कोई नहीं है ! क्योंकि महान आत्मायें भी ज्ञान नैया द्वारा ही संसार सागर को पार कर लेते हैं !

जिस प्रकार अग्नि ईधन को भस्म कर देती है , वैसे ही ज्ञान में वो शक्त्ति है जो विकर्मो को भस्म कर देती है ! सर्व विकर्म और साधनों की आसाक्त्ति और मोह को समाप्त कर ज्ञान-योग की परिपक्व अवस्था से ही आत्मा शुद्ध और पवित्र बन जाती है ! 

ज्ञान में वो शक्त्ति है , जो आत्मा के सर्व पूर्व विकर्म को दग्ध कर सकती है और हमारी परिपक्व अवस्था बना सकती है और आत्मा को पवित्र बनने की विधि बता सकती है !

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भगवान ने आगे कहा कि-

जिसने इन्द्रियों को संयमित कर , वासनाओं को जीता है , साधनों में असक्त्ति नहीं है तथा परमात्मा में श्रद्धा विशवास है , वही ज्ञान की पराकाष्ठा को प्राप्त कर सकता है , अर्थात् सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त कर लेता है !

ज्ञान मार्ग में पुरूषार्थ में अग्रसर होकर के परम शान्ति को प्राप्त कर लेता है !

विवेकहीन , श्रद्धा रहित, संशययुक्त्त आत्मा पुरूषार्थ के मार्ग से भ्रष्ट हो जाती है !

इसलिए कहा जाता है-

” संशय बुद्धि विनश्यन्ति ”

जो विवेकहीन हैं , श्रद्धा रहित हैं , संशययुक्त्त आत्माएं हैं , वे पुरूषार्थ के मार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं और परमसुख की अनुभूति से वंचित हो जाते हैं !

इसलिए हे धनंजय ! परमात्मा के प्रति समर्पण भाव से और कर्मयोग की विधि से तथा ज्ञानयुक्त्त विवेक की तलवार से , अज्ञान से उत्पन्न संशय को नाश कर समत्व भाव से कर्म करो , तो सर्व प्रकार के बन्धनों से मुक्त्त हो जाओगे !

ये समपर्ण भाव विकसित करने की प्रेरणा भगवान ने अर्जुन को दी और इस तरह से यहाँ पर चौथा अध्याय समाप्त हो जाता है !