गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य (सातवाँ और आठवाँ अध्याय)
“आत्म-स्वरूप स्थिति”
The Great Geeta Episode No• 039
हिन्दओं में इतने भगवान क्यों हैं ?
यहाँ पहले ही भगवान बताते हैं कि हे अर्जुन !
मुझे जानने के लिए हज़ारों में कोई विरला ही प्रयत्न करता है और उसमें भी कोई विरला ही मुझे जान पाता है !
ये बात अर्जुन को क्यों कही गई ?
क्योंकि अभी तक भी अर्जुन ने भगवान के सत्य स्वरूप को पहचाना नहीं है ! वो अभी तक श्रीकृष्ण के रूप में ही उनको देख रहा है जो उसका मित्र है !
इसलिए भगवान ये बात उसी को समझाते हैं कि
हे अर्जुन ! मुझे जानने के लिए हज़ारों में कोई विरला ही प्रयत्न करता है और उसमें भी कोई विरला ही जानता है ! जो अनन्य भाव से मेरे आश्रित होकर मेरे साथ योग लगाता है वह सरलता से मेरे सम्पूर्ण स्वरूप को जान लेता है और माया को भी पार कर जाता है !
ये बात भगवान ने इसलिए अर्जुन को कही क्योंकि अभी तक भी अर्जुन साधारण स्वरूप को देख रहा है ! उसके दिल में वो भाव , अभी तक ईश्वर के प्रति जागृत नहीं हुआ है ! जो गीता को सम्पूर्ण श्रद्धा से मानते हैं उनके लिए ये बात गीता में कहीं गई है कि हज़ारों में से कोई विरला ही मेरे स्वरूप को जानता है !
अब भगवान यदि श्रीकृष्ण के रूप में होते तो कौन नहीं जानता ?
सभी जानते हैं कि श्रीकृष्ण कौन है ! लेकिन फिर भी अगर ये बात कही गई है कि हज़ारों में भी कोई विरला ही मुझे जानता अर्थात् वो स्वरूप कौन सा है ?
तो कहा गया है कि प्रकृति पुरूष और परम पुरूष से ये संसार चक्र चलता है ! भगवान उस बात को स्पष्ट करते हैं कि तीनों के बीच में ये खेल है ! उसमें सर्वश्रेष्ठ कौन है – में परम पुरूष हूँ मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है !
पहले भी ये बताया गया है कि आजकल की युवा पीढ़ी अपने मात पिता से पूछते हैं
कि हिन्दओं में इतने भगवान क्यों हैं ? और क्रिशच्यिन में एक गॉड क्यों है ?
और माँ-बाप के पास जवाब नहीं होता हैं ! वो क्या कहते हैं बेटे ये सब भगवान हैं ! सबको मानना चहिए ! और इसलिए हम लोगों ने अपने मन्दिरों में भी सारे देवी-देवताओं के चित्र लगा दिए ताकि कोई नराज़ नहीं हो जाए ! लेकिन भगवान यहाँ स्पष्ट करते हैं कि
हे अर्जुन ! पुरूष , प्रकृति और परमपुरूष तीनों के बीच में ये संसार का खेल चलता है !
- उसमें सबसे श्रेष्ठ मैं परमपुरूष हूँ , मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है !
- मैं मनुष्य सृष्टि का बीजरूप हूँ !
- श्रीकृष्ण बीजरूप नहीं है ! क्योंकि उसने जन्म लिया , देह धारण की , कर्म किया , फल भोगा सारे संसार के चक्रों में वो आया तो वो बीज रूप नहीं है !
- बीज कोई और है ! इसलिए भगवान कहते हैं मैं मनुष्य सृष्टि का बीजरूप हूँ , उन बुद्धिमानों की बुद्धि हूँ जो धर्म के विरूद्ध नहीं हैं !
- मैं प्रकृति के गुणों के अधीन नहीं हूँ , प्रकृति के गुणों के अधीन मनुष्यात्मायें है !
- परमात्मा सतो , रजो और तमो गुणों से भी ऊपर है !
- मन , बुद्धि , संस्कार जैसे आत्माओं में चलते हैं उससे भी ऊपर है !
- बुद्धिवानों की बुद्धि परमात्मा है !
फिर कहा कि माया द्वारा जिनके ज्ञान का अपहरण हुआ है और जो आसुरी स्वभाव को धारण किये हुए हैं वो मनुष्यों में अधम , दुष्ट कर्म करने वाले , मूढ़मति परमात्मा की शरण ग्रहण नहीं करते ! अर्थात् माया के वश में हैं , तो परमात्मा की शरण में कैसे आ सकते हैं ?
अब फिर से वही Question उठता है कि गीता का भगवान श्रीकृष्ण वा निराकार परमपिता शिव ? ? ?
पुरूषार्थ बड़ा या भाग्य बड़ा या बुद्धि बड़ी ?
दुर्योधन ने कहा था कि
धर्म क्या है ? मैं जानता हूँ , अधर्म क्या है , वो भी मैं जानता हूँ ! परन्तु धर्म की राह पर चलने की मुझमें शक्त्ति नहीं है और अधर्म को मैं छोड़ भी नहीं सकता !
वही है दुर्योधन जो अपने धन का दुरूपयोग करता है अर्थात् इस शरीर के भीतर आत्मा में इतने अखुट खजाने है और उस धन का दुरूपयोग करने वाला वो भगवान की शरण कभी नहीं ले सकता !
इसलिए आज के संसार में भी ऐसे कई लोग हैं जो कहते हैं धर्म क्या है वो भी हम जानते हैं , परन्तु धर्म पर चलने की शक्त्ति नहीं है और अधर्म को छोड़ नहीं पाते हैं ! तो उनको क्या कहेंगे ?
वो भगवान की शरण कभी नहीं ले सकते ! उनकी बुद्धि में ज्ञान नहीं बैठ सकता , मायावी बातें अर्थात् दुनिया की चकाचौंध ही मन में चलती रहती हैं और उसी के अधार पर उनकी बुद्धि में जो ज्ञान है उस ज्ञान का भी अपहरण ( Deprivation ) हो जाता है !
इसलिए कई बार छोटी सी कॉमन सेंस (Sense) की बातें भी वो समझ पाते हैं ! ज्ञान अर्थात् बुद्धि प्रदान की यथार्थ को समझने की , सत्य को समझने की बुद्धि मिल रही है ! कई बार कई लोग यह प्रशन पूछते हैं कि
पुरूषार्थ बड़ा या प्रालब्ध बड़ी ?
आपका विवेक क्या कहता है ? अकसर लोग यही कहते हैं पुरूषार्थ बड़ा है ! लेकिन आप को सत्य पता चलेंगा कि ” न पुरूषार्थ बड़ा है ना प्रालब्ध बड़ी है ” तो कौन बड़ा ? एक बहुत सुन्दर कहानी से आप जान सकते हैं !
एक बार एक जंगल में तीन व्यक्त्तियों की आपस में बहुत बड़ी बहस हो रही थी ! हरेक कहे में बड़ा , में बड़ा , तीनों की आपस में इतनी बहस हो रही थी ! तभी वहाँ से एक राजा गुजर रहे थे ! उसने सोचा कि मेरे राज्य में ऐसे इतनी बहस करने वाले कौन हैं ? कौन हैं ये व्यक्त्ति जो अपने आपको बड़ा सिद्ध करने का प्रयत्न कर रहें हैं ! तीनों व्यक्त्ति राजा के पास आए और कहने लगे राजा जी अब आप ही हमारा फैसला करो कि हम तीनों में बड़ा कौन है ! राजा ने कहा कि पहले आप अपना परिचय तो दो कि आप कौन हो ? तो (१) पहले व्यक्त्ति ने कहा- मैं कर्म हूँ ,पुरूषार्थ हूँ (२) दूसरे ने कहा-मैं भाग्य हूँ , प्रालब्ध हूँ , (३) तीसरे ने कहा मैं बुद्धि हूँ ! अब आप हमें फैसला करके बताइये कि हम तीनों में बड़ा कौन है ? राजा ने कहा ऐसे मैं कैसे फैसला कर लूं ? पहले आप को अपने आप से प्रमाणित करना पड़ेगा कि आप तीनों में से बड़ा कौन है ? जो प्रमाणित होगा हम फैसला देंगे ! तीनों को एक-एक सप्ताह मिलता है , अपने आप को प्रमाणित करने का ! कहाँ-कहाँ प्रमाणित करें , किस तरह प्रमाणित करें , यह आप पर है ! वहाँ से लकड़हारा जा रहा था , राजा ने कहा इस लकड़हारे पर अपना प्रयोग करो और अपने आप को प्रमाणित करो ! तीनों ने कहा ठीक है ! सबसे पहले पुरूषार्थ ने कहा कि मैं उसमें प्रवेश करता हूँ ! और एक हफ्ते तक मैं आपको रिज़ल्ट बताउंगा ! तो सबसे पहले पुरूषार्थ ने प्रवेश किया ! उस लकड़हारे में ऐसी शक्त्ति आ गयी कर्म करने की कि उसने , उस दिन इतने अधिक लकड़ी काट दी ! रोज़ जो काटता था उससे डबल लकड़ी काट दी ! अभी बुद्धि साथ नहीं है और न भाग्य साथ है ! अब उस लकड़ीयों को उठाने की क्षमता उसमें नहीं थी कि उसे बज़ार ले जाये और उसको बेचे ! काट तो दिए उसने लेकिन बुद्धि नहीं है , प्रालब्ध नहीं है , भाग्य नहीं है ! तो क्या करे ? उसने सोचा कि आधी लकडीयां को उठा ले जाता हूँ और आधी लकड़ीयों को छुपाकर जाता हूँ ! उसने झाड़ियों में उसको छुपा दिया और आधी लकड़ीयों को ले गया जंगल से शहर में ! उसे बेचकर जब वापिस आया तो देखा कि छुपाई हुई लकड़ीयां चोरी हो गई थी ! भाग्य साथ नहीं था ! सारा सप्ताह ऐसा चलता रहा ! रोज़ डबल लकड़ीयां काटता था , आधे रखकर जाता था और आधे लेकर जाता था ! जब जाता था तो वो बची हुई लकड़ीयां चोरी हो जाती थी ! हफ्ते के बाद देखा कि उसकी स्थिति वैसी की वैसी ही थी !
कई बार संसार में , कई लोग पुरूषार्थ बहुत करते हैं , लेकिन फिर भी स्थिति वैसी की वैसी ही रहती है , सुधरती नहीं है ! जैसे ही एक हफ्ताह पूरा हुआ , उसके बाद दूसरे सप्ताह में भाग्य को प्रवेश करना था ! तब कर्म बाहर निकल आया और भाग्य ने प्रवेश किया !
भाग्य बड़ा या बुद्धि बड़ी ?
दूसरे हफ्ते में भाग्य ने प्रवेश किया ! जब भाग्य ने प्रवेश किया , तो उसको बैठे-बैठे लॉटरी लग गई ! लॉटरी लग गई पैसा आ गया ! उसने सोचा कि मैं काम क्यों करूं ? लकड़ी क्यों काटूं? तो उसने लकड़ीयों काटना छोड़ दिया ! सोचा इतना पैसा है , मैं ऐशो-आराम क्यों न करूं ? खूब ऐश करने लगा क्योंकि बुद्धि तो थी नहीं कि पैसे को कैसे यूज़ करना चाहिए ! बुद्धि नहीं थी , कर्म करने की शक्त्ति चली गई , तो जो पैसा आया था उसको उड़ाना चालू किया ! ऐश करता गया , पैसा उड़ाता गया..हफ्ते के अन्दर , तो सारे पैसे खत्म कर दिये ! अब सारे पैसे खत्म हो गए ! हफ्ते के बाद उसकी स्थिति वैसी की वैसी ही हो गयी ! उसके बाद तीसरे हफ्ते में बुद्धि को प्रवेश होना था ! अब जैसे ही बुद्धि ने प्रवेश किया तो वो लकड़हारा सोचने लगा ! अब बुद्धि उसके अन्दर आई तो उसने सबसे पहले कुल्हाड़ी की धार को तेज की ! जैसे की कुल्हाड़ी की धार तेज करके गया जंगल में , तो रोज जो लकड़ीयां काटता था उससे उसने डबल लकड़ीयां काट ली ! कम मेहनत में डबल कट गयी ! अभी भी भाग्य साथ नहीं था , कर्म भी साथ नहीं था लेकिन बुद्धि साथ थी ! बुद्धि की शक्त्ति से उसने डबल लकड़ीयां तो काट ली ! अब काटने के बाद बुद्धि चलाने लगा कि पिछली बारी तो सब चोरी हो गई थी, इसलिए अभी तो छोड़कर जाना नहीं है ! अब भाग्य साथ नहीं है तो क्या करेगा ? तो उसने फिर दिमाग चलाया ! जंगल से बेल को तोड़ा एंव चार-पांच लकड़ीयों को आपस में बांधकर तगाड़ा जैसे बनाया और आगे से खीचने वाला भी बनाया ! उसके अन्दर उसने सारी लकड़ीयों को भरा और खींचकर शहर में ले गया ! जब ज़्यादा लकड़ीयां थी तो ज़्यादा पैसे मिले ! जैसे पैसे ज़्यादा मिले उसने एक और कुल्हाड़ी खरीद ली ! अब दो कुल्हाड़ी हो गयीं ! अब दोनों कुल्हाड़ियों की धार तेज़ की ! पहली कुल्हाड़ी की धार थोड़ी कम हो गयी तो उसने दूसरी कुल्हाड़ी से काम शुरू कर दिया ! उसने अगले दिन और ज़्यादा लकड़ीयां काटी ! फिर उसने जो तगाड़ा बनाया हुआ था , उसे सभी लकड़ीयां को बांधकर शहर में ले गया ! दूसरे दिन और ज़्यादा पैसे मिले ! इस तरह हफ्ते के बाद उसकी स्थिति बेहतर हो गयी ! कारण क्या ?
बुद्धि से उसने कर्म किया ! और जब बुद्धि से कर्म किया तो बुद्धि को यूज़ करते हुए जब पुरूषार्थ किया तब पुरूषार्थ व्यर्थ नहीं गया ! तो पुरूषार्थ ने उसको भाग्य दिलाया ! तो दुनिया में कई लोग पूछते हैं कि पुरूषार्थ बड़ा कि प्रालब्ध बड़ी ? दोनों में एक भी बड़ा नहीं है जब बुद्धि ही ना हो ! तो स्थिति वैसी की वैसी ही रहेगी !
इसलिए भगवान आकर के सबसे पहले माया ने जो बुद्धि का अपहरण किया है , वो बुद्धि पहले प्रदान करता है , गीता ज्ञान द्वारा ! बुद्धिवानों को बुद्धि प्रदान करता है ! जो बुद्धि अपहरण हो गयी थी , वो बुद्धि पहले हमें प्राप्त होती है ! उस बुद्धि के आधार से जब हम पुरूषार्थ करते हैं तो प्रालब्ध परछाई की तरह चलती हुई पीछे-पीछे आती है !
जीवन में सबसे पहले समझ से काम करो ! जो पुरूषार्थ करो , वो भी समझ अर्थात् बुद्धि से करो !