E.58 तीन प्रकार की बुद्धि, त्याग, सुख, धारणा, कर्म

गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य (अठारहवाँ अध्याय )

“जीवन जीने की सम्पूर्ण विधि “

The Great Geeta Episode No• 058

Truegyantree Meditation

जीवन जीने की सम्पूर्ण विधि क्या है ?

भगवान ने यहाँ बतलाया है कि जीवन जीने की सम्पूर्ण विधि क्या है ?

उस जीवन जीने के लिए कौन सी चीज़ मनुष्य जीवन में किस प्रकार से होनी चहिए ! भगवान ने सोलहवें और सत्रहवें अध्याय में यह स्पष्ट किया कि सतो , रजो, तमो- प्रकृति के तीन गुण हैं और उससे मनुष्य आत्मायें किस प्रकार प्रभावित हो जाती हैं ! जिस प्रकृति का विशेष प्रभाव होता है , वैसी ही उसकी आंतरिक प्रकृति बनने लगती है और उसी कर्म में भगवान ने तीन प्रकार के यज्ञ बताए है और इनकी विवेचना की है ! तीन प्रकार की तपस्या बतायी हैं तीन प्रकार के दान बताए और तीन प्रकार के भोजन बताए हैं !

अठाहरवें अध्याय में और आगे के जीवन के अन्दर जो विशिष्ट ( Specific ) बातें हैं कि

  1. तीन प्रकार की बुद्धि (सतो , रजो, तमो)
  2. तीन प्रकार का त्याग ( यज्ञ, दान और तप )
  3. तीन प्रकार के सुख (सतो , रजो, तमो)
  4. तीन प्रकार की धारणा की शक्त्ति
  5. तीन प्रकार के कर्म (सतो , रजो, तमो)

अर्थात् किस प्रकार से हमें जीवन जीना है, ये हमें खुद निशिचत करना होगा ! यदि हमें सात्विक जीवन जीना है, तो हमारी बुद्धि कैसी होनी चहिए ?

हमारी धारणा शक्त्ति कैसी होनी चहिए ?

हमारे कर्म कौन से होने चहिए और उनसे उपलब्ध सुख किस प्रकार का होता है ?

इस प्रकार तीन-तीन बातों को और स्पष्ट किया है ! साराशं में जीवन जीने की विधि बतायी है !

सन्यास की परम सिद्धि क्या है , उसको भी स्पष्ट किया है ! ( सन्यास का मतलब ये नहीं कि सब कुछ छोड़ देना, अपने कर्तव्य को छोड़ना, अपनी ज़िम्मेदारियों को छोड़ना ! उसको सन्यास नहीं कहा जाता है ! )

👉 अठारहवां अध्याय पूरे सत्रह अध्यायों का सार है !

मनुष्य के अन्दर रही हुई आसुरी वृत्तियों का सन्यास , इसकी विशेष प्रेरणा दी है ! यहाँ त्याग का अर्थ और मानवीय चेतना तथा कर्म पर प्रकृति के गुणों का प्रभाव समझाते हैं !

इस अध्याय में वर्णित संकेत हमारे आंतरिक व्यक्त्तितत्व का बोध कराते हैं कि किस प्रकार के व्यक्त्तित्व को हमें अपने भीतर से निर्माण करना है और समय प्रति समय हम इन सूचकों के आधार पर अपने व्यक्त्तित्व का अवलोकन करें कि ये सात्विक हैं , राजसिक हैं या तामसिक हैं ! उसके आधार पर स्वयं का परिवर्तन करें !

Truegyantree Spiritual-Awakening

सन्यास और त्याग का यथार्थ स्वरूप क्या है ?

भगवान से अर्जुन पूछता है कि सन्यास और त्याग का यथार्थ स्वरूप क्या है ?

इन दोनों के बीच का अन्तर स्पष्ट करने के लिए उसने प्रार्थना की ! भगवान कहते हैं –

त्याग तीन प्रकार के हैं ! यज्ञ, दान और तप !

ये कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है तो इंसान को फिर क्या त्याग करना चहिए और किस बात का सन्यास करना चहिए ?

ये ज्ञान बहुत ज़रूरी है, हर जगह सम्पूर्ण गीता के अन्दर यह बात हमने बार-बार सुनी है कि आसाक्त्ति का त्याग करो !

जो फल है वो परछाई की तरह हर कर्म के साथ जुड़ा हुआ ही है ! फिर फल की कामना करना या उससे अधिक की कामना करने से , क्या वो प्राप्त हो जायेगा ?

कर्म हम थोड़ा करे ऐसा फल अधिक चाहें , तो क्या ये मिलेगा? अरे जो परछाई जैसी होगी उसी अनुसार वो प्राप्त होना है ! उसकी इच्छा को लेकर के कर्म करना , ये तो यथार्थ नहीं है ! इसमें हम अपने विचारों की शक्त्ति को यूं ही व्यर्थ गँवा रहे हैं ! जिसने जितनी भावना से जैसा कर्म किया, उसका फल वैसे ही साथ जुड़ जाता है ! चाहे आप इच्छा करो या न करो ! ये जुड़ा हुआ ही है ! उससे अधिक इच्छा करने पर वो मिलने वाला नहीं है क्योंकि कर्म का प्रणाम जितने में होगा , उसी अनुसार वो मिलना है !

इसलिए भगवान बार-बार कहते हैं कि इसमें अपना समय, व्यर्थ क्यों गवां रहे हो ?
  1. आसाक्त्ति और फल के त्याग को ही सात्विक त्याग माना गया है ! मनुष्य कर्म कर भी कर रहा है लेकिन यह समझता है अरे, क्या ये तो दुःख भरा जीवन है ! अर्थात् बार-बार उस दुःख के प्रति अफसोस करता रहता है या शारीरिक कष्ट के भय से इसको त्याग कर देता है !

2. सोचता है ये कर्म में नहीं करूंगा, पता नहीं कहीं मुझे शारीरिक कष्ट न भोगना पड़े ! इससे शारीरिक कष्ट उठाना पड़ेगा या मुझे दुःख उठाना पड़ेगा ! अर्थात् नियत ( Apponted ) कर्म को दुःख समझ करके करता है ! ये समझकर उस कर्म को त्याग करते हैं, तो ये राजसी त्याग हो गया जिसमें फल की प्राप्ति नहीं होती है !

3. नियत कर्म को जो मोह वश त्याग करता है ! जैसे- आज एक माँ अपने बच्चे के मोह वश कुछ अगर त्याग भी करती है तो वह त्याग तामसिक त्याग हो गया ! क्योंकि ये मोहग्रस्त त्याग है !

सम्पूर्ण कर्म का त्याग संभव नहीं है ! परन्तु जो कर्म के फल के त्यागी हैं यही शुद्ध सन्यास है ! यह सन्यास चरम उत्कृष्ट ( Excellent ) अवस्था है, भगवान ने स्पष्ट किया कि तीन प्रकार के त्याग कौन- से हैं ! 

उसमें सात्विक त्याग कैसे सहज हम अपने जीवन के अन्दर ले आयें ! राजसिक त्याग माना , जो कष्ट समझ करके उसको छोड़ देते हैं ! इसमें कोई त्याग नहीं हुआ ! जहाँ मोह वश कुछ त्याग भी कर देते हैं तो ये तामसिक त्याग में आ जाता है !

कर्म करने के कारण

आगे भगवान ने कहा कि हे भरत अर्थात् भारत वासी श्रेष्ठ, मन, वाणी, कर्म से कोई भी कर्म मनुष्य नीति सम्मत या नीति विरूद्ध करता है, उसके पाँच कारण हैं ! वो पाँच कारण कौन- से हैं ?
  1. अधिष्ठान
  2. कर्ता
  3. कारण
  4. इच्छाएं
  5. संस्कार

अधिष्ठान ( Establishment ) अर्थात् क्षेत्र , शरीर स्थान ( जहाँ है ) !

कर्ता कौन है ? तो मन से प्रेरित होकर के आत्मा करता है !

कारण यानि जो भिन्न-भिन्न इंद्रियां हैं जो साधन बन जाती हैं, कारण के लिए !

इच्छाएँ प्रकृतिजन्य (जो प्रकृति से पैदा हुई हो) प्रवृत्तियां हैं – सतो , रजो , तमो – इनमें हम लिप्त होते हैं, इच्छा के वश ! और अन्त में है प्रालब्ध या हमारे संस्कार !

ये चीज़ें हर कर्म के प्रति लगती हैं चाहे वो मन, वाणी या कर्म हो ! कोई भी व्यक्ति नीति सम्मत करे या नीति विरूद्ध करे ये पाँच बातें इस विधि में आ जाती है !

असंस्कारी बुद्धि वाला अपने को ही कर्ता समझता नहीं ! ‘मैं’ के अभिमान में आ जाता है ! वह दुर्गिति को समझता नहीं ! पर जो अहंकार भाव से ऊपर उठता है और जिसकी बुद्धि अलिप्त है, वो बन्धनमुक्त्त हो जाता है ! वह ईश्वरीय नियम में चलता हुआ ही कर्म करता है ! E.43 श्रीमदभगवदगीता में योग/ध्यान का अभ्यास

अहंकार:

इसलिए परमात्मा ने अर्जुन को यही बताया कि जब असंस्कारी व्यक्त्ति होते हैं, वो अपने को ही कर्ता समझते हुए, अहंकार भाव में आ जाते हैं ! इसमें में भी तीन अवस्थाएं हैं जिसका वर्णन आगे के भाग में होगा... एक है देहभान , दूसरा है अभिमान और तीसरा है अहंकार ! ये तीन स्टेजिज़ ( Stages ) हैं !

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B K Swarna
B K Swarnahttps://hapur.bk.ooo/
Sister B K Swarna is a Rajyoga Meditation Teacher, an orator. At the age of 15 she began her life's as a path of spirituality. In 1997 She fully dedicated her life in Brahmakumaris for spiritual service for humanity. Especially services for women empowering, stress & self management, development of Inner Values.

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