E.55 सत्रहवें अध्याय: तीन प्रकार की पूजा, भोजन, तपस्या व दान

गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य (सोलहवाँ और सत्रहवाँ अध्याय )

“दैवी और आसुरी प्रकृति”

The Great Geeta Episode No• 055

तीन प्रकार की पूजा कौन सी है?

अर्जुन सबसे पहला सवाल इस अध्याय के प्रारम्भ में भगवान से पूछता है कि हे भगवान !

जो मनुष्य ज्ञान रहित , श्रद्धा युक्त्त होकर यज्ञ कर्म करते हैं उनकी निष्ठा सात्त्विक है राजसिक है या तामसिक है ? माना ज्ञान नहीं है , श्रद्धा है और यज्ञ कर्म करते हैं तो इसको क्या कहा जायेगा ?


भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन !

सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके स्वभाव संस्कार के अनुरूप होती है ! जैसी जिसकी श्रद्धा, वैसा उसका स्वरूप होता है ! इसलिए दोनों बातें हैं !

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  1. श्रद्धा है लेकिन ज्ञान नहीं है ! मानो वो देवाताओं को पूजते हैं तो उसे सात्त्विक पूजा मानेगें !
  2. यदि श्रद्धा और ज्ञान नहीं लेकिन तामसिक प्रेत और भूतों की पूजा करते हैं तो वह तामसिक माने जाते हैं !
  3. जो राजसिक होते हैं – वे यक्ष और राक्षसों की पूजा करते हैं !
इस प्रकार श्रद्धा जिसकी जैसी होती है , ज्ञान नहीं है लेकिन केवल श्रद्धा है तो वो श्रद्धा से जिस प्रकार जिसको पूजने में लगते हैं , उस अनुसार वह सात्त्विक , राजसिक और तामसिक बनते जाते हैं !

इसलिए शायद समाज में लोगों ने देवाताओं की पूजा आरम्भ कर दी ! यह सात्त्विक पूजा तो मानी जाती हैं ! संसार में लोगों में ज्ञान नहीं है , लेकिन श्रद्धा के साथ देवी- देवाताओं की पूजा करते हैं ! यह भी व्यक्त्ति के साथ संस्कारों की ओर इशारा करती है !

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जिस व्यक्त्ति की प्रकृति तामसिक है , वो भूत- प्रेतों की पूजा करने में श्रद्धा रखते हैं और उसी से प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं ! जब ज्ञान ही नहीं और श्रद्धा भी ऐसी तामसिकता में रखी है तो उसकी प्रकृति वैसी हो जाती है ! 

Hd Geeta Bodh Aatma Sakshatkaar Hindi 22
भगवान ने कहा है कि ज्ञान-रहित आराधना में अज्ञान , अहंकार , कामना और राग समाया होता है !

जहाँ ज्ञान नहीं वहाँ अज्ञान है ! अज्ञान क्या है ? अहंकार ! जहाँ अहंकार समाया होता है वहाँ कामनायें समायी होती हैं , राग समाया होता है ! वह सर्व कष्ट पहुंचाने वाले अविवेकी ( Indirection ) हो जाते हैं ! उन्हें आसुरी निश्चय वाले ही जानो ! वह अपनी-अपनी प्रकृति अनुसार आहार ,यज्ञ , तप , दान करते हैं !

तीन प्रकार का आहार क्या है ?

उसका भेद अब तुम मेरे से सुनो ! इस तरह आगे तीन प्रकार के भोजन बतालाये गये हैं !
  1. सात्विक
  2. राजसिक
  3. तामसिक

सात्विक मनुष्य का आहार उन्हें आयु , बुद्धि बल , स्वास्थ्य , सुख , सात्विकता तथा तृप्ति प्रदान करने वाला होता है ! उनका भोजन भी आयु बढ़ाने वाला , बुद्धि बढ़ाने वाला , आंतरिक मनोबल शक्त्ति बढ़ाने वाला , स्वास्थ्य बढ़ाने वाला, सुख प्रदान करने वाला तथा तृप्ति प्रदान करने वाला होता है !

राजसिक मनुष्यों का आहार कैसा होता है ? मनुष्य जैसा अन्न खाता है उसी का प्रभाव उसके मन के विचारों पर पड़ता है ! तीखे खट्टे , खारे , बहुत गर्म , चटपटे , रूखे , बहुकारक आहार दुःख और शोक तथा क्रोध उत्पन्न करने वाले होते हैं ! ये राजसिक आहार हैं !

तामसिक आहार किसको कहता हैं ? प्रहर भर से पड़ा हुआ अर्थात् रात का बासी अन्न स्वीकार करना ! सुबह को बचाके रखना और दूसरे दिन उसे स्वीकार करना ! प्रहर भर से पड़ा हुआ , नीरस ( जिसके अन्दर एक प्रकार की दुर्गंध आ गयी हो ) बासी है , अपवित्र है अर्थात् जानवरों को मारकर के उसका आहार , इसको कहा जाता है , तामसिक भोजन !

व्यक्त्ति जैसा भोजन खाता है , वैसी अपनी प्रकृति का निर्माण करता है ! इसलिए व्यक्त्ति की प्रकृति या सात्विक या राजसिक या तामसिक होती है या उसके साथ वो जिस प्रकृति को रचता है, जिस प्रकार के बच्चों को वह जन्म देता है उसका आधार उसका आहार होता है !

अपने बच्चो को वश में नहीं कर सकते

जैसा भोजन खाया है वैसी प्रकृति की रचना होगी ! फिर उस रचना से दुःखी हो जाते हैं और सोचते हैं कि भाई ऐसी रचना कहाँ से आ गयी ? इसलिए अगर अपनी प्रकृति को, अपनी रचना को अच्छा बनाना चाहते हो तो उसके लिए भोजन बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है ! कई माता-पिता की यह शिकायत बनी रहती है अपने बच्चों के प्रति कि हमारी रचना ऐसी है ! किस तरह से उन्हें वश किया जाए, नियंत्रण में लाया जाये !

श्रीमदभगवद् गीता में , इसका उत्तर प्राप्त होता है ! उस रचना को कंट्रोल करने के लिए भी उसको वैसा भोजन प्रदान करना ज़रूरी है ताकि उसकी प्रकृति में भी परिवर्तन आ जाए !

तीन प्रकार की तपस्या ?

इस भाग में तीन प्रकार की तपस्याओं के बारे में बताया गया हैं !

  1. शरीर सम्बन्धी तपस्या
  2. वाणी की तपस्या
  3. मन की तपस्या

तीन प्रकार की तपस्याओं में भी एक तो शरीर सम्बन्धी तपस्या दूसरी वाणी की तपस्या और तीसरी मन की तपस्या ! तीन प्रकार की तपस्या को स्पष्ट करते हुए उसमें सात्विक , राजसिक , तामसिक भावनाओं का स्पष्टीकरण भगवान देते हैं !

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1 शरीर सम्बन्धी तपस्या:

जहाँ देव, द्विज, गुरू और ज्ञानीजनों की आराधना, बाह्य शुद्धि, सरलता, ब्रह्यचर्य और अहिंसा है- ये शरीर सम्बन्धी तपस्या है !

2 वाणी की तपस्या:

जो वाक्य सच्चे हैं, प्रिय हैं, हितकर हैं, ज्ञानयुक्त्त हैं मधुर हैं, वह वाणी का तप हैं ! इसलिए कई बार दुनिया में भी कहा जाता है कि जैसी वाणी वैसा वर्ण ! अर्थात् जिस क्वालिटी की वाणी मनुष्य बोलता है, उससे पता चलता है कि वह किस वर्ण का है ! शरीर या जन्म से भले ही कोई भी वर्ण हो लेकिन संस्कारों से पता चलता है कि ये किस वर्ण का है ! ये है वाणी की तपस्या !

परमात्मा ने वाणी के लिए कितने सुन्दर दो दरवाजे दिए हैं ! एक तो जिह्वा वह अपनी चंचलता न मचाती रहे इसलिए उसे बत्तीस दांतों के बीच में रखा और दूसरा होठों का दरवाजा है ! अर्थात् जो बोलें इसके पहले सोच-समझकर बोलें ! साथ में तीन सिपाही दिए गये हैं कि जब भी बोलने का मन हो तो पहले सोचो ! जो बोलने जा रहा हूँ , वह समयानुसार उचित है ! कई बोल अच्छे होते हैं लेकिन समयानुसार नहीं होते हैं ! पहले ये देखो कि उचित समयानुसार ये बोल है !

दूसरा सिपाही हमें ये कहता है कि क्या जो तुम बोलने जा रहे हो वह सत्य, मधुर और हितकर है ! तीसरा सिपाही हमें ये कहता है कि जो बोलने जा रहे हो , क्या इस वक्त्त जरूरी है बोलना ! अगर ये तीनों सही हैं , तो फिर भले बोलो ! क्योंकि उसमें नुकसान नहीं होगा ! लेकिन अगर उचित समय नहीं है , जरूरी नहीं है , तो बिना बोले और भी अच्छी तरह से कार्य हो सकता है ! अगर वो वचन कडुवे हों , सीधे हों हितकर न हों , कल्याण की भावना युक्त्त न हों और ज्ञानयुक्त्त न हों , तो भी कई बार बहुत नुकसान कर देते हैं !

जैसे कोई भी संगीत मधुर क्यों लगता है , क्योंकि सारे वाद्य जो हैं , वह एक दूसरे की हारमनी में बजाए जाते हैं ! सुसंवादिता में बज रहे हैं , इसलिए वो संगीत मधुर हो जाता है ! कानों को भी प्रिय लगता है ! इसी तरह भगवान ने हर बोल बोलने से पहले , हमें भी भीतर में कितने वाद्य दिए हैं , ताकि हर बोल हमारा मधुर निकले !

देखा जाए तो ये दातों की पोज़ीशन को देखते हुए हारमोनियम याद आता है ! ये जिह्वा जो है , वह तालू के साथ तबले का कार्य करती है ! क्योंकि कोई भी संगीत मधुर तब होता है जब तबला और हारमोनियम होता है ! और जहाँ ये होंठ जिस पर श्रीकृष्ण ने भी अपनी बाँसुरी रखी वो बाँसुरी बजाने वाला कार्य करते हैं ! ये तीन वाद्य तो भगवान ने हमें वाणी के लिए अन्दर ही दिए हैं और साथ में स्वर !

स्वर मधुर तभी होता है, जब उसको तबले का साथ मिलता है, हारमोनियम का स्वर मिलता है और उसको बाँसुरी की मधुर ध्वनि मिलती है ! इस अनुसार अगर हम हर वचन का उच्चारण करें , तो वो कितना सुमधुर होगा ! हर आत्मा भी उसको सुनने के लिए लालायित होगी ! तो ये है वाणी की तपस्या !

इसलिए गांधीजी ने तीन बन्दरों का उदाहरण दिया-

बुरा न देखो , बुरा न बोलो , बुरा न सुनो !

लेकिन वाणी के लिए, इस ईश्वरीय विश्वविद्यालय में पाँच बातें सिखायी जाती हैं और यही पाँच बातें हमारे लिए मंत्र बन जाती हैं !

कम बोलो, धीरे बोलो, मधुर बोलो, सोचकर बोलो और प्रैक्टिकल बोलो अर्थात् जो कर्म कर सकें, वैसा हम बोलें !

तो ये पाँच बातें जब हैं , तब हमारे बोल कितने मूल्यवान हो जाते हैं ! हर बोल के अन्दर वजन होता है जो व्यक्त्ति को जीवन पर्यंत भी सुख-सुविधा देने के योग्य बन जाता है !

Truegyantree Spiritual-Awakening

3 मन की तपस्या:

मन का तप क्या है ? तो बताया कि मन की प्रसन्नता, सरलता, गंभीरता, आत्म-संयम और अंतःकरण की शुद्धि ये मन का तप है ! जितना मन का तप है उतना मन सुन्दर बन जाता, सुमन बन जाता है ! सुमन बनाने के लिए हमें अपने मन को अमन बनाने की ज़रूरत है, हमें अपने मन के विचारों को दमन ( Suppressing ) करने की आवश्यकता नहीं है ! लेकिन मन को जितनी सकारात्मक दिशा मिलती है, उतना ही मन सुमन बन जाता है ! तो जिस मन में प्रसन्नता प्रफुल्लता, सरलता, गंभीरता समायी हुई है वो मन हमेशा सुन्दर अनुभव कराने वाला बन जाता है क्योंकि कई बार इस संसार में देखा जाता है कि मनुष्य जब दूसरे का सुख देख नहीं पाते हैं और दूसरे के सुख को देखते हुए जब दुःखी हो जाते हैं तो मन में कई प्रकार की दुराग्रह पूर्वक भावनायें उत्पन्न होती हैं !

कई बार लोग तो इस हद तक चले जाते हैं कि इसका किस प्रकार अनिष्ट कर दें ! और उसके लिए कितना भी कष्ट भी उठाते हैं ! तो वह तपस्या तामस अर्थात् तामसिक है वह रजसिक नहीं है !

तीन प्रकार के दान होते हैं ?

इसी प्रकार तीन प्रकार के दान होते हैं !

1. दान देना एक कर्त्तव्य माना गया है समाज में ,जो दान योग्य स्थान और समय देखकर , योग्य पात्र को दिया जाता है , जिसमें प्रति उपकार की अपेक्षा नहीं होती वह दान सात्विक माना जाता है !

    दान करके उसके साथ भी हम एक ज्वाइंट एकाऊंट क्रियेट कर लेते हैं तो उसका किया गया पाप हमें भी पाप के भाग में खींच ले जाता है !

    2. जो दान क्लेश पूर्वक तथा प्रति उपकार के उद्देश्य से और फल की कामना रखकर दिया जाता है ! वह दान राजस अर्थात् राजसिक दान है ! जहाँ प्राप्ति की इच्छा है !

    3. जो दान बिना सत्कार किये , तिरस्कार पूर्वक , अपवित्र स्थान , अनुचित समय में कुपात् को दिया जाता है , वह दान तामस अर्थात् तामसिक दान माना गया है !

    आज एक व्यक्त्ति गरीब है , उसकी स्थिति को देखते हुए हमें दया आती है और हमने उसको बीस या पचास रूपये दे दिये ! सोचा चलो मेरा तो पुण्य जमा हो गया ! मैने तो दान कर दिया ना ! लेकिन ज़रूरी नहीं है कि उससे पुण्य का खाता ही जमा हुआ ! वो निर्भर इस बात पर करता है कि वो व्यक्त्ति इन पैसों का इस्तेमाल किस तरह करता है !
    माना उस पैसों से , उसनें एक चाकू खरीदा और चाकू से किसी का खून कर दिया ! तो उसने जो पापकर्म किया , उस पापकर्म के भागीदार हम भी बन गए ! क्योंकि मैने दिया तब उसने किया ! अगर मैं नहीं देता तो शायद वह करता भी नहीं ! इसलिए उसने जो पापकर्म किया उसके भागीदार हम बन गए !

    इस प्रकार कलियुग में जाने -अनजाने में बहुत पापकर्म हो गए हैं ! एक तो जानकार होता है कि हमने झूठ बोला , किसी को दुःख दिया तो ये पापकर्म के खाते में चला जाता है ! लेकिन जो अनजानेपन के पापकर्म होते हैं , वो इस प्रकार के होते हैं ! जहाँ अनुचित समय और कुपात्र को दिया जाता है , तो उस कुपात्र ने जो कर्म किया उसकी भागीदार में , वो पापकर्म में हम भी हिस्सेदार हो जाते हैं !

    कहा जाता कि कलियुग में पात्र देखकर दान करो , नहीं तो दान न करना ज्यादा अच्छा है ! कुपात्र को देकर समाज में और भी कुकर्म को बढ़ावा देने की बजाए अच्छा रहे कि दान न करें ! आगे भाग में बहुत सुन्दर उदाहरण एक कहानी के रूप में दान के बारे में बतलायी गई है ! 
    B K Swarna
    B K Swarnahttps://hapur.bk.ooo/
    Sister B K Swarna is a Rajyoga Meditation Teacher, an orator. At the age of 15 she began her life's as a path of spirituality. In 1997 She fully dedicated her life in Brahmakumaris for spiritual service for humanity. Especially services for women empowering, stress & self management, development of Inner Values.

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