गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य (तेरहवाँ, चौधवाँ एवं पंद्रहवाँ अध्याय )
“धर्मक्षेत्र और कुरूक्षेत्र का भाव”
The Great Geeta Episode No• 051
यथार्थ् ज्ञान
फिर भगवान धर्म क्षेत्र और कुरूक्षेत्र के विषय में स्पष्ट करते हैं कि धर्मक्षेत्र में यथार्थ् ज्ञानयुक्त्त कर्म करने के आधार कौन-से हैं ?
जो सदगुण हैं , वही उसके ज्ञान-युक्त्त कर्म करने के या धर्मक्षेत्र में प्रवृत्त होने का आधार हैं !
जैसे कि विनम्रता , अहिंसा , सहनशीलता , सरलता, आज्ञाकारिता , पवित्रता , स्थिरता , आत्म-संयम, इन्द्रियों को वश करना , निरंहकारी , वैराग्य, अनासक्त्त , नष्टोमोहा , हर परिस्थिति में संतुलन, अव्यभिचारी भक्त्ति भाव , एकांतवासी ,उपरामता आत्म-अनुभूति एवं परमात्म-अनुभूति करने की इच्छा,ये सारे ज्ञान-युक्त्त कर्म करने के आधार या धर्मक्षेत्र की प्रवृत्ति को बढ़ाने के आधार हैं ! (सदगुण Click Here)
फिर भगवान ने कहा अज्ञेय अर्थात् रहस्यपूर्ण परमपुरूष के विषय में सुनो !
आत्मा की अपनी क्वालिफिकेशन हैं और परमात्मा की अपनी हैं ! परमात्मा के विषय में और स्पष्टीकरण भगवान आगे इस अध्याय में करते हैं !
परमात्मा इन्द्रियातीत है, जैसे कि मनुष्यात्माओं को स्थूल इन्द्रियाँ हैं ! परमात्मा इन्द्रियों से परे है, अतीत (Detached ) है!
गुण:
वो निर्गुण एवं सर्वगुणों के सागर हैं ! अब यहाँ एक विरोधाभास आता है कि वे निर्गुण भी है और सर्वगुणों का सागर भी है ! निर्गुण का अगर शाब्दिक अर्थ लिया जाए, तो निर्गुण माना जिसमें कोई गुण नहीं है ! लेकिन फिर भी वो सर्वगुणों के सागर है ! ये कैसे हो सकता है ? निर्गुण और सर्वगुण , माना जिसके अन्दर मनुष्य सदृश्य गुण नहीं हैं , लेकिन जो गुणों में अनंत है ! उस रूप में उसको कहा निर्गुण !
आकार :
जैसे परमात्मा को निराकार कहा , निराकार का अगर शाब्दिक अर्थ लिया जाए तो जिसका कोई आकार नहीं है ! लेकिन परमात्मा का यदि कोई आकार नहीं तो बिना आकार के तो कोई चीज़ इस संसार में होती ही नहीं है ! हवा है ,जो दिखाई नहीं देती है ! लेकिन फिर भी उसका नाम और आकार है !
एक चित्रकार को अगर चित्र निकलना हो और उसको चक्रवात तूफान दिखाना हो तो दिखा सकता है कि नहीं ? दिखा सकता है ! जिस हवा का आकार नहीं है , उसको भी एक चित्रकार अपने चित्र में ढाल देता है कि चित्र देखकर के कहेंगे बड़ी तूफानी हवा चल रही है ! शान्त प्रकृति दिखानी हो तो भी दिखा सकता है ! जैसे हवा नहीं चल रही है , जैसे पत्ता भी हिल नहीं रहा है !
पूरा प्रतिबिंब पानी के अन्दर नज़र आता है ! जो हवा का आकार नहीं है , उसको भी चित्रकार अपने चित्र के अन्दर ढाल सकता है ! तो क्या परमात्मा का स्वयं का नाम , रूप व आकार नहीं होगा ? निराकार का भाव यहां है कि जिसका आकार मनुष्य सदृश्य नहीं है ! उस अर्थ में कहा है निराकार ! निर्गुण माना जिसके अन्दर मनुष्य सदृश्य गुण नहीं हैं लेकिन जो गुणों में अनंत है !
इन्द्रिय:
फिर आगे भगवान कहते हैं सूक्ष्म होने के कारण मैं भौतिक इन्द्रियों के द्वारा जानने वा देखने से परे हूँ ! इन चरम चक्षुओं से उसे देखा नहीं जा सकता है या जाना नहीं जा सकता है ! लेकिन फिर भी वो न्यारा और प्यारा है ! वह संसार में उत्पत्ति, पालना और संहार का करनकरावनहार है ! क्योंकि ब्रह्या, विष्णु और महेश के माध्यम से वो अपना कार्य कराता है ! खुद करता नहीं है, लेकिन कराता है ! इसलिए उसको करन करावनहार कहा जाता है !
रूप:
वो प्रकाशमान है , पूर्ण ज्ञान स्वरूप और ज्ञान का सागर है और ज्ञान का लक्ष्य है ! इसे केवल मेरे भक्त्त ही पूरी तरह समझ सकते हैं , ऐसा भगवान कहते हैं !
भक्त्त अर्थात् जो अनन्य भाव से उसको याद करते हैं !
उसके प्रति जिनका समर्पण भाव है वही उसको जान सकते हैं , समझ सकते हैं और दिव्य स्वभाव की ओर वो आकर्षित होते हैं और उसी के आधार पर उस दिव्य स्वभाव को अपने अन्दर भी प्राप्त कर सकते हैं !
प्रकृति और पुरूष
फिर भगवान ने बताया कि प्रकृति और पुरूष किस तरह इस संसार के खेल में अपना कार्य करते हैं ! प्रकृति और पुरूष (आत्मा) अनादि हैं !
ये तीनों अनादि और अविनाशी हैं प्रकृति, पुरूष और परमपुरूष (परमात्मा) !
कार्य और कारण को उत्पन्न हेतु प्रकृति है !
अब यहाँ प्रकृति का भाव है- व्यक्त्ति का अपना स्वभाव ! जैसी उसकी प्रकृति होती है, स्वभाव होता है उसी के अनुसार वो कार्य भी करता है ! कार्य और कारण को उत्पन्न करता है, कार्य करने के लिए भी कारण उत्पन्न करता है, जैसे व्यक्त्ति की नेचर ( प्रकृति ) होता है ! किसी के अन्दर सात्त्विक प्रकृति होती है, तो उसके कार्य और उसके कर्म करने का कारण उस अनुसार होता है ! जिसकी रजो प्रकृति होती है, तो उसके कार्य भी वैसे होते हैं ! जिसकी तमो प्रकृति है उसके कार्य भी वैसे होते हैं ! पुरूष और प्रकृति के योग से जीवन व्यतीत होता है !
शरीर माना प्रकृति के पाँच तत्व और पुरूष अर्थात् आत्मा ( Not body ), इन दोनों का योग होता है !
योग माना सम्बन्ध होता है , तब जीवन व्यतीत होता है ! पुरूष प्रकृति के साथ मिलकर शरीर का भरण-पोषण करता है ! उसके साथ सुख-दुख को भोगता है ! स्वयं को उसका स्वामी मानकर, अधीन करके चलाता भी है अर्थात् पुरूष ( आत्मा ) प्रकृति को अधीन करके चलाती है ,कर्म अनुसार वह मानव अगली देह को प्राप्त करता है !
जो पुरूष और प्रकृति के संयोग से हुए कर्म की गृह्य गति को समझ लेता है वह कर्म-बन्धन से मुक्त्त हो जाता है अर्थात् वो इस दुनिया में रहते हुए भी न्यारा और सब का प्यारा होता है !
✅ इतनी स्पष्ट जानकारी परमात्मा ने पुरूष और प्रकृति के बीच बतायी है !
आत्मानुभूति अर्थात् आत्म-साक्षात्कार
अर्जुन जब भगवान से आत्मानुभूति अर्थात् आत्म-साक्षात्कार को जानने के बारे में कहा कि मुझ विस्तार में बतायें !
💫 आत्मानुभूति अर्थात् आत्म साक्षात्कार में कुछ लोग ध्यान द्वारा और कुछ लोग कर्मयोग के साथ नियत कर्म में प्रवृत्त ( Occupied ) होते हैं !
अर्थात् आत्मानुभूति करनी है , आत्म साक्षात्कार करना है , तो उसके लिए ये तीन मार्ग बतलाए हैं !
- ध्यान के द्वारा कर सकते हैं आत्मनुभव ,
- कुछ लोग ज्ञान से समझकर के लौजिकल माइंड जो है , रेशनल थिकिंग वाले जो हैं , वो ज्ञान के द्वारा उस चीज़ को समझकर के उसका अनुभव करते हैं !
- कुछ प्रैक्टिकल कर्म द्वारा मन के अन्दर समर्पण भाव को लेकर नियत कर्म में प्रवृत्त होते हैं, उसी के द्वारा उसका अनुभव करते हैं !
जो उसकी विधि नहीं जानते वो लोग तत्व स्थित महापुरूषों द्वारा सुनकर आचरण करते हैं ! जो आत्मायें महान हैं , जिन्होंने इस तत्व को समझा हुआ है , उसके द्वारा सुनकर के वे अपने जीवन में प्रेरणा प्राप्त करते हैं
गुण:
पुरूष समदृष्टि रखकर व्यवहार करता है और ईश्वर को सर्वज्ञ जानता है , वह अपना शत्रु कभी नहीं बनता है ! क्योंकि जैसे पहले अध्यायों में बताया कि मन ही अपना मित्र है और अपना शत्रु है ! तो किस प्रकार वो शत्रु बन जाता है , कैसे वह अपना मित्र बनता है ? तो जो पुरूष साक्षी भाव से कर्म करता है , समदृष्टि रखकर व्यवहार करता है , ईश्वर सब कुछ जानने वाला ही है , जानते हुए कर्म करता है , वह कभी भी अपना शत्रु नहीं बनता और वो श्रेष्ठ गति को प्राप्त होता है !
विशेषता:
साथ-साथ इसकी और विशोषताओं का वर्णन किया है कि विवेकहीन पुरूष ये देखता है कि सारे कार्य शरीर द्वारा सम्पन किये जाते हैं और जबकि दूसरा यह भाव विकसित करके कर्म करता है कि स्वयं और सबमें हर एक के अन्दर एक दिव्य अविनाशी आत्मा है ! अर्थात् आत्मभाव को जागृत करता है ! साथ ही ये भाव विकसित करता है कि हर आत्मा , हर शरीर के अन्दर भी एक चैतन्य शक्त्ति, दिव्य अविनाशी आत्मा है ! जो शाश्वत् है !
कर्म बन्धन नहीं बनता जब आत्मभाव में स्थित होकर कर्म करते हैं !
हर एक को आत्मभाव में देखकर से कर्म करो तो कभी भी कर्म बन्धन में नहीं बंधेंगे ! जिस प्रकार सूर्य एक है और सारे ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है !
ऐसे परमात्मा ज्ञान सूर्य अपनी ज्ञान किरणों से सबकी चेतना में ज्ञान प्रकाश फैलाते हैं ! जो लोग ज्ञान-चक्षु से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के अन्तर को समझ लेते हैं वह श्रेष्ठ गति को प्राप्त करते हैं !
भावार्थ ये है कि आज जीवन के अन्दर ज्ञान की आवश्यकता क्यों है ?
जैसे सूर्य की रोशनी में सब कुछ स्पष्ट दिखाई देता है ऐसे ज्ञान ऐसा प्रकाश है , जिससे अन्दर का रहा हुआ अंधकार समाप्त हो जाता है ! अज्ञानता समाप्त होती है ! नहीं तो अज्ञानता के कारण हमारे कई कर्म ऐसे बन जाते हैं जो हमें बांधने वाले हो जाते हैं ! इसलिए ज्ञान की आवश्यकता है ! क्योंकि ज्ञानयुक्त्त होकर के जब हम कर्म में आते हैं तो कर्म बन्धन नहीं लेकिन श्रेष्ठ कर्म करते हुए , श्रेष्ठ गति को प्राप्त कर सकते हैं ! इसलिए कलियुग के अन्दर जीवन व्यतीत करने के लिए आध्यात्मिक ज्ञान की बहुत… बहुत… बहुत.. आवश्यकता है ! तभी हम आत्मा की शक्त्तियों को यथार्थ दिशा में चैनेलाईज़ कर सकते हैं ! नहीं तो व्यक्त्ति अपनी शक्त्ति को , अपनी क्षमता को व्यर्थ ही गंवा देता है !
एक कहानी:
एक बार एक व्यक्त्ति था ! उसके पास ज़मीन एक टुकड़ा था ! वो ऐसी बंजर ज़मीन थी , जिस पर कुछ नहीं उगता था ! कुछ उसके पास भेड़-बकरियां थी ! लेकिन समय प्रति समय उसने कर्जा लेकर अपने परिवार को चलाया ! एक दिन वो अपनी बंजर ज़मीन पर खाट डालकर सोच रहा था कि मेरे पास आठ-दस बकरियां मेरे पास हैं !
उनको बेचकर के भी मैं अपना कर्ज़ा चुका नहीं सकता हूँ और बंजर ज़मीन में तो कुछ होने वाला नहीं है ! ऐसा जीवन जीकर कर क्या फायदा ? इतना उदास हो गया , अपने जीवन से ! उसके मन में एक विचार आया कि जीवन का अन्त कर देना ही ठीक है ! ऐसा जीवन मैं कब तक जीता रहूँगा ? ऐसी निराशावादी भावनायें उसके अन्दर चल रही थी ! उतने में उसने देखा कि दूर से कुछ लोग आ रहे हैं !
जैसे ही उसके पास आये तो लोगों ने ये सवाल पूछा कि ये ज़मीन का टुकड़ा किसका है ? तो उसने कहा मेरा है ! उन्होंने कहा कि हम सरकार की तरफ से आए हैं और हम लोगों के रिसर्च के आधार पर पता चला है कि इस ज़मीन के नीचे बहुत तेल है और इसलिए हम ड्रिलिंग करना चाहते हैं कि सचमुच हमारी रिसर्च सही है या गलत है !
उसने सोचा कि वैसे ही बंजर ज़मीन है कोई काम की तो है नहीं ! भले ड्रिलिंग करो ! तो उन लोगों ने जब ड्रिलिंग किया तो पता चला कि प्रतिदिन एक लाख पच्चीस हजार बैरल तेल निकल सकता है ! इतना नीचे तेल है, इतनी समृद्ध ये ज़मीन है ! तो उन्होंने ने कहा कि आप हमें ये ज़मीन का टुकड़ा बेचेंगे ?
जितना भी धन आप कहेंगे उतना ही हम देंगे ! तो वह व्यक्त्ति सोचने लगा कि अभी-अभी मैं अपने भाग्य को कोस रहा था कि मैं कितना गरीब हूँ , इतना कर्ज़ा है मेरे ऊपर और मैं कर्ज़ा कैसे चुकाऊंगा ? इससे तो मर जाना ही बेहतर है ! कितनी निगेटिव भावनायें मेरे मन के अन्दर अर्थात् स्वयं के प्रति आ रही थीं ! लेकिन इस ज़मीन के नीचे इतना अमूल्य धन है उसका मुझे कोई ज्ञान ही नहीं था अर्थात् मैं तो केवल अपनी ज़मीन को बंजर ही देख रहा था !
शिक्षा
ठीक इसी तरह व्यक्त्ति के भीतर भी अथाह शक्त्ति, अथाह क्षमता है ! लेकिन जब तक वो शक्त्ति और क्षमता को जानता नहीं है , उसको बाहर लाता नहीं है, तब तक वो भी आध्यात्मिक रूप से गरीब ही है और आध्यात्मिक खज़ानों से वंचित है!
लेकिन जब आध्यात्मिक ज्ञान के माध्यम से अपनी वास्तविकता को जानता है उस शक्त्ति को अगर वो उजागर करता है , बाहर ले आता है तो उसके जैसे समृद्ध इस संसार में कोई नहीं है !
भावार्थ ये है कि हमें भी अपने आप में ड्रिलिंग करने की आवश्यकता है ! वह ड्रिलिंग कोई स्थूल ड्रिलिंग की बात नहीं है ! आध्यात्मिक ज्ञान और मेडिटेशन के माध्यम से , ध्यान के माध्यम से हम भीतर जायें और अपनी वास्तविकता को उजागर करें ! अपनी शक्त्तियों को बाहर ले आयें, जितना उन शक्त्तियों को बाहर ला सकते हैं ! उतनी श्रेष्ठ गति को हम प्राप्त कर सकते हैं ! यही बात भगवान अर्जुन को स्पष्ट करना चाहते थे !
स्रष्टि चक्र
आगे भगवान बताते हैं कि ज्ञान के आधार पर मनुष्य मुझ जैसी दिव्य प्रकृति अर्थात् दिव्य स्वभाव को प्राप्त कर सकता है ! ज्ञान के माध्यम से हम अपने स्वभाव के अन्दर परिवर्तन को लाते हुए, अपनी प्रकृति को दिव्य प्रकृति बना सकते हैं !
हे अर्जुन ! मेरा स्थान महातत्व है अर्थात् ब्रह्यतत्व है जिसको कहा जाता है अनंत शान्ति का धाम ! अब ये बात बहुत स्पष्ट भगवान ने बता दी है कि मैं इस संसार के कण-कण में व्यापक नहीं हूँ ! मेरा स्थान महातत्व, अनंत शान्तिधाम है, उसमें मैं गर्भ धारण करता हूँ अर्थात् शान्तिधाम मेरा निवास स्थान है !
किस प्रकार का गर्भ भगवान धारण करते हैं ?
इस सृष्टि को रचने का ! इसलिए कहा जाता है कि भगवान को जब सृष्टि रचने का संक्लप आया तो वो जो सृष्टि रचने का संक्लप उत्पन्न हुआ ये उनके लिए गर्भ था !
ये गर्भ किस को दिया ?
तो कहा गया कि ये संक्लप से सृष्टि का निर्माण किया ! इस तरह से भगवान कहते हैं कि
मैं उस शान्तिधाम में निवास करता हूँ ! उसमें मैं गर्भ धारण करता हूँ अर्थात् उसमें मैं सृष्टि के होने का संक्लप स्फूटित ( रचना ) करता हूँ ! फिर प्रकृति के संयोग से सब शरीरों की उत्पति होती है !
प्रकृति गर्भ धारण करने वाली माता है और मैं बीज को स्थापन करने वाला पिता हूँ !
इस तरह पुरूष, प्रकृति और परम पुरूष के बीच में ये खेल चलता है कि किस प्रकार परम पुरूष संक्लप को रचता है और प्रकृति के संयोग से शरीरों की रचना करते है !
फिर भगवान कहते हैं कि प्रकृति से उत्पन्न होने वाले सतो, रजो, तमो ये तीन गुण अविनाशी देही अर्थात् आत्मा को देह में बांधते हैं !
शरीरों की उत्पत्ति हुई और आत्माओं ने उसमें प्रवेश किया ! इसलिए जैसे ही शरीर तैयार होता है आत्मा कुछ समय के बाद उसमें प्रवेश करती है !
जब तक शरीर तैयार नहीं होता है , तो आत्मा उसमें प्रवेश नहीं कर सकती है ! जब उसमें प्रवेश करती है तो जिस प्रकार के गुण से वो शरीर बना है वह सात्त्विक प्रकृति से , राजसी प्रकृति से बना है या तामसिक प्रकृति से बना है ! अब वो प्रकृति कैसे निमित्त होती है ? जिस प्रकार का व्यक्त्ति भोजन करता है ! सात्त्विक प्रकृति का देह तैयार होता है ! राजसिक भोजन करते हैं तो उससे राजसिक प्रकृति का देह तैयार होता है ! अगर हम तामसिक भोजन करने के बाद इच्छा करें कि हमें सात्त्विक गुण का बच्चा मिले , ये कभी हो सकता है ? जैसे आपने खाया है , जैसी प्रकृति आपने अन्दर डाली है , उसी प्रकृति से तो वो शरीर तैयार होने वाला है !
फिर वो बच्चा आपके दुःख देता है ! अब तामसिक प्रवृत्ति वाला बच्चा दुःख ही देगा ना ! इसलिए जिस प्रकार का शरीर हमें तैयार करना होता है वह हमारे ऊपर है ! तब कहा कि प्रकृति से उत्पन्न होने वाले सतो , रजो और तमो ये तीन गुण अविनाशी देही ( आत्मा ) को देह से बांधते हैं ! सतो गुण किसको कहते हैं ? निर्मल माना पवित्र ! बुद्धि को प्रकाश प्रदान करने वाला ! निर्विकारी होने के कारण वह व्यक्त्ति को सुख और ज्ञान के सम्बन्ध में ले आता है , बाँधता है ! वो ज्ञानी बन जाता है ! क्रमशः……