गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य (पाँचवां और छठाा अध्याय )
“परमात्म-अवतरण एवं कर्मयोग”
The Great Geeta Episode No• 033
इंसान का जब जन्म होता तो ईश्वर से उसको दो गिफ्ट मिलती है !
1. सबसे पहली गिफ्ट मिलती है , विवेक युक्त्त बुद्धि ! जो सही और गलत को समझ सकती है !
आज एक छोटे बच्चे के आगे भी आप झूठ बोलकर देखो , वो बच्चा तरन्तु आप से कहेगा , आपने झूठ बोला ना ! लेकिन उस वक्त्त उसको हम क्या कहते हैं ! चुप बैठ , तू समझता नहीं है और जितनी बार हमने उसको कहा चुप बैठ समझता नहीं है तो उतनी बार हमने उसके विवेक को मारा !
जब विवेक को ही मार दिया तब वो सोचता है कि यही सच है ! झूठ बोलना यही वास्तविकता है ! इसलिए वो भी झूठ बोलना प्रारम्भ कर देता है ! जब वो झूठ बोलता है , तब हम कहते हैं झूठ बोलता है , कहाँ से सीख कर आया ?
कहता है खुद से तो सीखा हूँ ! कैसी मनुष्य की विचारधारा है , कैसी उसकी सोच है ! अगर कभी-कभी साक्षी होकर के दृश्य को देखें ना तो हंसी भी आती है कि मनुष्य कितनी अज्ञानता वश चलता है ! जीवन में कर्म करता है ! जबकि भगवान ने उसको विवेक युक्त्त बुद्धि दी है !
2. दूसरी गिफ्ट स्वतंत्रता की दी ! ये दो गिफ्ट ईश्वर से प्राप्त कर आत्मा इस संसार में आती है !
जिस विवेक युक्त्त बुद्धि से सही क्या है , गलत क्या है , इसको पहचान सकती है ! फिर स्वतंत्रता जो उसके पास है , उसके आधार पर क्या करना है , क्या नहीं करना है , उसके लिए वह खुद स्वतंत्र है ! उसके लिए कोई ज़िम्मेवार नहीं है !
जब मनुष्यात्मा के ज्ञान पर अज्ञानता का पर्दा पड़ जाता है , तब वो मोह , माया में उलझकर अपने निज स्वरूप को भूल जाता है और परमात्मा को ही अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी समझने लगता है ! जीवन में ये महान-ते-महान अज्ञानता है ! यही सबसे बड़ा अज्ञान है !
भगवान ने यही बात अर्जुन को समझायी है ! इस रीति से आत्मज्ञान द्वारा यह अज्ञान नष्ट होता है ! इसलिए पहले भी बताया गया है कि जीवन में आध्यात्मिक ज्ञान की आवश्यकता क्यों है ?
आध्यात्मिक ज्ञान की आवश्यकता इसलिए है , क्योंकि वही अज्ञान को न्यूट्रालाईज़ करके खत्म करता है ! जब आत्मज्ञान द्वारा अज्ञान नष्ट हो जाता है , तब सभी बातें स्पष्ट समझ में आने लगती हैं ! जैसे सूर्य की रोशनी में हर चीज़ स्पष्ट दिखाई देती है ! ऐसे ज्ञान भी रोशनी है ! जब ज्ञान की रोशनी बुद्धि को प्राप्त होती है तो हर चीज़ सही स्वरूप में नज़र आने लगती है !
मुक्त्ति या जीवन-मुक्त्ति
आगे भगवान ने कहा कि इन्द्रियों के विषय से उत्पन्न सुख , ये आदि , मध्य और अन्त के दुःख का कारण है !
जो मनुष्य काम , क्रोध से उत्पन्न वेग ( Pressure ) को सहन कर , उससे मुक्त्त हो जाता है वह समर्थ आत्मा है ! वही सच्चा योगी है ! वह अपने मन और बुद्धि को परमात्मा में स्थित कर सकता है , श्रद्धा से उनकी शरण में चला जाता है , उसकी सर्व के प्रति सम दृष्टि हो जाती है !
इसलिए संसार में रहते जो मोह रहित , संशय रहित है , वह जीवन मुक्त्त है ! वह मन की एकाग्रता द्वारा असीम सुख का अनुभव करने लगता है ! जीवन मुक्त्त इसलिए कहा जाता है कि मुक्त्ति से भी श्रेष्ठ है जीवन मुक्त्त स्थिति !
एक है , मुक्त्त हो जाना ! इस शरीर से मुक्त्त हो जाना और परमात्मा के धाम में चले जाना ! ये मुक्त्ति की अवस्था है ! मुक्त्ति की अवस्था का अनुभव कभी होता नहीं है , जीवन मुक्त्ति इसलिए श्रेष्ठ है !
ठीक इसी प्रकार जब व्यक्त्ति मुक्त्ति की अवस्था में , ये शरीर छोड़कर मुक्त्ति में चला जाता है ! मुक्त्ति की अवस्था में तब उसको , कोई अनुभव नहीं होता है ! लेकिन जीवन में हैं और वहाँ मुक्त्ति का अनुभव करें !
इसलिए कहा मुक्त्ति से भी श्रेष्ठ जीवन-मुक्त्ति है ! मुक्त्ति की कामना नहीं लेकिन जीवन में रहते मुक्त्ति का अनुभव करके देखो कितना श्रेष्ठ है !
आगे जीवन-मुक्त्ति का बहुत सुन्दर उदाहरण दिया गया है ! आशा है कि आप उसका लाभ लेंगे !
एक बार एक सन्यासी राजा जनक के पास जाता है ! राजा जनक से कहता है कि राजन ! हमने सब चीज़ों का सन्यास कर लिया छोड़ दिया लेकिन उसके बाद भी हम अपने मन को कभी-कभी कंट्रोल नहीं कर पाते हैं !
आवेग इस तरह आता है जो मन को कंट्रोल करना असम्भव सा महसूस होता है और आप इस सुख सुविधा के भौतिक साधनों के बीच में रहते हुए अपने आपको विदेही कहते हो , यह कैसे सम्भव है ?
मुझे समझ में नहीं आता है ! क्योंकि मैने सब कुछ छोड़ दिया है , उसके बाद भी मैं अपने मन को कंट्रोल नहीं कर पाता हूँ ! सबके बीच में रहते हुए हम कैसे विदेही बन सकते है ? क्या आप मुझे बता सकते हैं ?
राजा जनक ने कहा कि मुझे विदेही क्यों कहते हैं ? यह प्रशन तो बहुत अच्छा पूछा लेकिन मैं थोड़ा अपने कार्य में व्यस्त हूँ ! जब मैं निवृत्त हो जाऊं फिर आपके साथ बैठकर के इस बात पर चर्चा करूंगा ! लेकिन तब तक आपका समय कीमती है , वो भी व्यर्थ नहीं जाना चाहिए ! आप एक काम कीजिए जब तक मैं अपने कार्य से निवृत्त होकर के आता हूँ , तब तक आप महल के दूसरी तरफ बहुत सुन्दर कारीगरी की गई है ! आप उस कारीगरी का अवलोकन करके आईये !
सन्यासी ने कहा ठीक है ! लेकिन राजा ने कहा कि अभी कारीगरी चल रही है ! वहाँ लाईटें लगी नहीं हैं ! इसलिए आपको ये दीपक ले जाना पड़ेगा जिसकी रोशनी में ही आप सब कुछ देख सकते हैं , क्योंकि वहाँ अंधेरा होगा ! सन्यासी ने कहा ठीक है !
राजा ने कहा एक बात और मैं आपको बता दूं ! खिड़की दरवाजे भी लगे नहीं हैं और वही हवा की दिशा है ! इसलिए आपको ध्यान रखना पड़ेगा कि कहीं दीपक बुझ न जाए ! क्योंकि दीपक अगर बुझ गया तो आप वो कलाकृति देख नहीं पाएंगे !
सन्यासी ने कहा ठीक है ! वो सन्यासी दीपक लेकर के गया और सारी कलाकृति को देखकर के जब वापिस आया तब तक राजा भी अपने कार्य से निवृत्त हो गया था !
दोनों बैठे !
राजा ने सहज भाव से सन्यासी से पूछा आप देखकर के आये ,
तो सन्यासी ने कहा हाँ , देखकर के आया !
कैसी लगी कलाकृति ,
तो सन्यासी ने कहा बहुत सुन्दर कलाकृति है !
तब राजा ने धीरे से पूछता है ,
ध्यान कहाँ था ?
सन्यासी ने कहा , कि दीपक के ऊपर ! वास्तव में ध्यान तो दीपक पर था , क्योंकि हवा तेज चल रही थी ! दीपक बुझ नहीं चाहिए इसलिए उसी पर ध्यान था !
तब राजा जनक ने कहा कि यही मेरी जीवन-मुक्त्त स्थिति का रहस्य है ! जीवन में रहते हुए मुक्त्ति का अनुभव करने के लिए या विदेही बनने के लिए साधन कोई बाधा नहीं है ! लेकिन आप का ध्यान कहाँ होता है , ये मुख्य बात है ! आपने सब कुछ छोड़ दिया है लेकिन अगर ध्यान में वही सब कुछ घूम रहा है तो उन्हें छोड़ने से कोई फायदा नहीं है !
मैं इन सभी साधन-सुविधाओं व भौतिक चाज़ों के बीच में रहता हूँ लेकिन अपना ध्यान उस आत्मा दीपक पर रखता हूँ !
इसलिए कहा जाता कि साधन बुरे नहीं है लेकिन मेरी मनोवृत्ति , मेरा ध्यान कहाँ है ? उसके ऊपर सारा निर्भर करता है ! मैं जीवन तो जी रहा हूँ लेकिन किस तरह से जी रहा हूँ , यह महत्त्वपूर्ण है !
इच्छाओं और क्रोध से मुक्त्त आत्म-संयमी जीवन , जिस के मन में कोई संशय नहीं रहा अर्थात् आत्मज्ञानी , अंतर्मुखी , सदा सुखी , अपने पापों को नष्ट कर , इस लोक में रहते हुए भी जीवनमुक्त्त है ! वह सिद्ध पुरूष है !