E.26 मन क्यों और कहां भटकता है ?

Geeta E•26 अर्जुन ने भगवान से कि हे प्रभु ! मनुष्य किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है ? कई लोगों के मन में भी ये प्रशन होगा कि मनुष्य किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करते हैं ?

460

गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य (तीसरा और चौथा अध्याय)

“स्वधर्म, सुख का आधार” 

The Great Geeta Episode No• 026

मन

आज मनुष्य जब भी भगवान को याद करने बैठता है , तो मन कहाँ भटकता है ? कहाँ चला जाता है ?

मनुष्य का मन हमेशा कोई-न कोई इन्द्रियों के आसाक्त्ति के पीछे जाता है ! मान लो किसी से बात करते-करते कोई बात मुख से निकल गयी ! बहुत सहज भाव से हमने कह दिया और बाद में कर्म में व्यस्त हो गए तो वो बात भी भूल गयी !

लेकिन जैसे ही शान्तचित होकर भगवान को याद करने बैठते हैं , तो वो व्यक्त्ति याद आता है और वो सारी बात याद आ जाती है ! फिर याद आता है कि अरे ! ये बात मुख से निकल गयी ! मुझे उसको कहनी तो नहीं चाहिए थी ! अब पता नहीं कितनी बड़ी मिस अण्डरस्टैडिंग होगी ऐसा होगा , वैसा होगा , कितने विचार चलने लगते हैं !

बैठे हैं भगवान के सामने और मन कहाँ चला गया ? मुख ने जो चंचलता की उसके पीछे मन चला गया ! कान द्वारा कोई बात सुन लेते हैं और सुनते समय हमने उसको हल्के रूप में से सुन लिया ! बाद में कर्म में व्यस्त हो गए तो भी ध्यान नहीं गया !

लेकिन जैसे ही शान्तचित होकर के भगवान को याद करने बैठेगें तो वो सारी बात याद आयेगी !

अरे, फलाने ने मुझे ये बात कही , लेकिन उसका भाव क्या था ? उसके बाद हम भाव निकालने लगते हैं , उसके पीछे की भावना को समझने का प्रयत्न करते हैं ! मन चला गया इन कानों ने जो व्यर्थ की बातें सुनी थी उसके पीछे ! इन आँखों द्वारा कोई चीज़ देख ली तो तरन्तु याद आता है कि मैने अपनी आँखों से देखा है , इसमें गलत हो ही नहीं सकता , तो मन चला वहाँ जो इन आँखों ने व्यर्थ की बातें देखी थीं ! जब कोई इन्द्रियां व्यर्थ की बातों में लगती हैं , उसी के पीछे मन चला जाता है और मन वश में नहीं होता है !

भावार्थ यह है कि हम जितना स्व अनुशासन को विकसित करेंगे , अपनी इन्द्रियों को संयम में रखेंगे , उतना इन अनेक भावों के ऊपर हम विजयी हो सकेंगे ! अपने मन को ध्यानस्थ कर सकेंगे ! ध्यानस्थ करते हुए अपनी इन्द्रियों के ऊपर सम्पूर्ण अधिकार प्राप्त कर सकेंगे और मन को भी वश में कर सकेंगे ! यही ज्ञान है , जो भगवान ने अर्जुन को दिया !

एक महत्त्वपूर्ण प्रशन पूछा अर्जुन ने भगवान से कि हे प्रभु !

  1. मनुष्य किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है ?
  2. कई लोगों के मन में भी ये प्रशन होगा कि मनुष्य किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करते हैं ?


भगवान ने बताया कि

रजोगुण से उत्पन्न काम और क्रोध , अग्नि के समान राग , द्वेष के ही पूरक हैं ! ज्ञानियों के निरन्तर वैरी है !

काम से ज्ञान नष्ट होता है ! बहुत सुन्दर बात इससे आगे बतायी है कि मन, बुद्धि और इन्द्रियां इनके निवास स्थान हैं ! काम और क्रोध का निवास स्थान कौन सा है ! तो मन , बुद्धि और इन्द्रियां इसके निवास स्थान हैं !

इसलिए अर्जुन ! तू पहले इन्द्रियों को याथार्थ संयमित कर !

  • यह ह्रदय अंतर देश के जगत की लड़ाई है , जो इन्द्रियों को वश करता है , वो ज्ञान विज्ञान से पाप का नाश कर देता है , इस तरह की प्रेरणा भगवान ने दी !
  • हम सबके प्रशनों का उत्तर मिल जाता है कि क्यों इसको जीतने की आवश्यकता है ?
  • उसी से ही पाप का आचरण होता है ! भगवान आगे व्याख्या करते हैं ! जिस प्रकार अग्नि को धुआँ ढ़क देता है , शीशे को धूल ढ़क देती है उसी प्रकार से चैतन्य आत्मा पर भी काम के विभिन्न अवस्थाओं का लेप चढ़ जाता है !
  • इसकी तृप्ति सभी नहीं होती है ! यह सदैव आग की तरह दहकती रहती है !
  • अतः स्वयं को इन्द्रियातीत आत्मा निश्चय करके व्यक्त्ति को चाहिए कि वो मन को आध्यात्मिक पुरूषार्थ में लगाए !
  • इस आध्यात्मिक शक्त्ति के द्वारा ही सदा अतृप्त रहने वाली काम वासना रूपी शत्रु पर जीत प्राप्त कर सकते हैं !
हमारा शत्रु कौन है ? कोई व्यक्ति नहीं , लेकिन शत्रु है अन्दर की नकारात्मकता वृत्तियाँ वा जो विकृतियां हैं ! 

जो हमारी वास्तविकता नहीं है ! जो हमारे स्वधर्म के लक्षण नहीं हैं ! ये हमारा सबसे बड़ा वैरी है और यही सबसे बड़ा शत्रु है !


अर्जुन ने एक और महत्त्वपूर्ण प्रशन पूछा जो हम सबका भी हो सकता है क्या हम मन बुद्धि और इन्द्रियों को संयमित कर पायेंगे ? क्या ये सहज है ?

भगवान ने बहुत सुन्दर उसका मार्ग बताया कि अर्जुन इस शरीर से परे इन्द्रियां हैं , शरीर तो एक होल है लेकिन उससे परे ये इन्द्रियां हैं ! विशेष इन्द्रियों से परे मन है , जो सूक्ष्म है ! मन से परे बुद्धि है और बुद्धि से परे तुम स्वयं सूक्ष्म बलवान और अत्यंत श्रेष्ठ आत्मा हो ! स्वयं के आत्मबल को समझकर बुद्धि के द्वारा अपने मन को वश में करो ! इस काम रुपी दुर्जय शत्रु को मारो ! इन्द्रियों के द्वारा यही आत्मा को मोहित करता है ! उसको वश में करने का एक यही तरीका है !

सुन्दर कहानी

मन को वश में करने के ऊपर बहुत सुन्दर कहानी है !

blue body of water with fog

एक व्यक्त्ति के पास बहुत ही हिष्ट-पुष्ट घोड़ा था ! लेकिन कोई उस घोड़े को वश नहीं कर पाता था ! कई राज्यों से गुज़रते हुए वह जब एक राज्य में आया तो राजा को खबर मिली कि एक बहुत ही हिष्ट-पुष्ट घोड़ा है लेकिन वश में नहीं होता ! जो उसको वश में करेगा उसको वो घोड़ा फ्री में मिल जाऐगा ! राजा ने ऐसे ही एक भरे मैदान के अन्दर अपने उस्तादों को बुलाया और कहा कि जो घोड़े को वश में करेगा उसको राजा की तरफ से भी इनाम मिलेगा ! कई उस्ताद आये उसको वश में करने के लिए , लेकिन जैसे ही नज़दीक जाते थे वो उछालकर के फेंक देता था या सामने से आक्रमण कर देता था ! घोड़ा वश में नहीं हो रहा था ! सारे उस्ताद जब फेल हो गये घोड़े को वश करने में तो राजा उदास हो गया कि हमारे राज्य में ऐसा कोई नहीं है , जो घोड़े को वश में कर सके ! राजकुमार काफी देर से बैठकर देख रहा था यह सारा दृश्य ! उसने राजा से कहा अगर मुझे अनुमति दें तो मैं इस घोड़े को वश में करना चाहता हूँ ! मुझे अपने में विशवास है ! राजा की अनुमति मिलते ही , राजकुमार ने देखा कि घोड़े को ऐसी दिशा में खड़ा किया गया था , जहाँ से उसकी परछाई लम्बी दिखती थी ! जैसे कोई व्यक्त्ति आगे से या पीछे आता था घोड़े को वश में करने के लिए , तो उसकी परछाई को देखकर घोड़ा भड़क उठता था ! इसलिए पीछे से अगर कोई जाता था तो पीछे लात मार देता था और आगे से कोई जाता था तो उस पर टूट पड़ता था ! सर्वप्रथम राजकुमार ने क्या किया ? धीरे-धीरे घोड़े की दिशा को बदली किया ! इस तरह से बदली किया कि घोड़े की परछाई भी पीछे गिरे ! जो आये उसकी परछाई भी पीछे गिरे ! फिर पीछे से जाकर इस घोड़े को वश में कर लिया ! सबसे पहले उसकी लगाम अपने हाथ में ली और घोड़ा वश में हो गया !


इसलिए भगवान ने अर्जुन को यही विधि बतलाया !

तुम आत्मा इतनी श्रेष्ठ और शक्त्तिशाली हो , इतनी बलवान हो , कि मन रूपी घोड़े को वश में करने के लिए सबसे पहले उसकी दिशा बदलना ज़रूरी है ! आज जिस दिशा में हम अपने मन को खड़ा कर रखें हैं ! उससे मन कभी वश में नहीं होगा !

वो कौन- सी दिशा में है कि जहाँ परछाई गिरती है , आशायें , तृष्णायें , इच्छायें ये सारी परछाई हैं ! जिसको प्राप्त करने में मन लगा हुआ है ! जितनी इच्छायें , तृष्णायें उसके सामने हैं उतना वो भड़कता रहता है , उछलता रहता है , कूदता रहता है , भ्रमण करता रहता है इसलिए सबसे पहले इस घोड़े की दिशा को बदलना आवश्यक है !

आध्यात्मिकता हमें यही समझ देती है कि किस प्रकार हम अपने मन की दिशा को परिवर्तन करें ! एक सकारात्मक दिशा की ओर उसका खड़ा करें ! उसके बाद इन्द्रियों को अनुशासित करें ! फिर उसके ऊपर सवार हो जायें बुद्धि की लगाम हाथ में खींच लो तो मन रूपी घोड़ा वश में हो जायेगा !

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here