E.36 योग कि सही विधि क्या है Part-2

गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य (पाँचवां और छठाा अध्याय )

“परमात्म-अवतरण एवं कर्मयोग”

The Great Geeta Episode No• 036

Table of Contents

3. तीसरा द्वार है आँखें

तीसरा द्वार है आँखें ! आँखें तीसरा द्वार क्यों है ? (Part 2)

क्योंकि मनुष्य की वृत्ति में क्या चल रह है वह वायब्रेशन आँखें में दिखती हैं ! किसी व्यक्त्ति से , कोई आपको अनुभव न भी हो , लेकिन उसकी आँखें को देखकर कहेंगे ये व्यक्त्ति बड़ा गुस्से वाला या प्यार वाला है !

भगवान ने अर्जुन को कहा कि

मन इन्द्रियां तथा कर्मों को संयम में रखकर के अर्थात् इन्द्रियों को जितना एकाग्र रखेंगे , उतना मन , बुद्धि और दृष्टि तीनों से ह्रदय में शुभ भावना जागृत होगी ! अकसर लोग मन्दिर में जाकर मूर्तियों के आगे आँखें बन्द कर लेते हैं , तो किसने किसके दर्शन किये , फिर तो यह कहना चाहिए ना कि दर्शन कराने जा रहे हैं !

हमने तो दर्शन किया ही नहीं ! दर्शन करना माना दर्शाना , जीवना में उसको उतारना ! जो सामने मूर्ति है उसके अन्दर कितनी निर्मलता है , कितनी पवित्रता है , कितनी सौभ्यता है ! उसको दर्शन करके , अपने जीवन में अनुभव जरूर करना कि वो निर्मलता , वो पवित्रता वो सौभ्यता को अपने जीवन में ले आयें !

इसलिए दर्शन करो ! आँखें बन्द नहीं करो , नहीं तो आपको एनर्जी नहीं मिलेगी वहाँ तो पवित्र ऊर्जा मिलेगी ! इसलिए मेडिटेशन में बैठने की यथार्थ विधि है कि आँखों को खुला रखना !
Truegyantree Meditation

लेकिन तब कई बार लोग क्या कहते हैं ?

आँखें खुला रखते हैं बहुत कुछ दिखाई देता है ! मन भटक जाता है ! सोचने की बात कि आज एक कन्या है या एक कुमार है !

जब तक उनको पता नहीं कि उनका भविष्य का जीवन साथी कौन है ? तब तक मन भटकता है ! कौन होगा ? क्या होगा ? कैसा होगा ?

अनेक विचार आते हैं ! लेकिन जिस दिन परिचय मिलता है , सम्बन्ध जुड़ जाता है , उसके बाद उसको हमें सिखाना नहीं पड़ता है कि , तुम भविष्य साथी को प्रेम से याद करो ! एकांत के पलों में बैठे होंगे और खो जायेंगे ! इतना खो जायेंगे कि पास से कोई गुज़र जाये उसको पूछो यहाँ से कोई गया तो क्या कहते हैं पता नहीं !

अरे आँखें खुली हैं , यहाँ बैठे हैं , इतना बड़ा व्यक्त्ति चला गया और तुम्हें दिखाई नहीं दिया ! तो कहते हैं पता नहीं हमारा ध्यान नहीं था ! वहाँ खुली आँख से ध्यान एकाग्र हो गया , इंसान की याद में और यदि भगवान को याद करने बैठो तो ध्यान इधर-इधर चला जाता है ! खुली आँख से तो ध्यान ही नहीं कर सकते ! परन्तु इंसान को याद करना है तो खुली आँख से कर सकते हैं !

परमात्मा की याद में बैठने में , एक वातावरण निमित्त किया जाता है , कॉमेंट्री दी जाती है , म्यूज़िक बज रहा होता है , उसके बाद भी ध्यान नहीं लगता है ! प्रॉब्लम कहाँ है ?

प्रॉब्लम आँखें खुली है या बन्द है उससे नहीं है ! प्रॉब्लम वहाँ है कि शायद ईश्वर के साथ जब हमारा प्यार ही नहीं है , वह तो देहधारी इंसानों के साथ प्यार बटा हुआ है !

किसी ने कहा कि एक दिल के हज़ार टुकड़े कर दिए और सबमें बांट दिये तो भगवान के प्रति जगह ही कहाँ रही ! जब भगवान के प्रति हमारा प्यार ही नहीं है , तो बहुत कुछ दिखाई भी देगा , डिस्टर्ब भी होगा , ध्यान नहीं लगेगा , शिकायतें बनी रहेंगी , क्या करें मन बड़ा चंचल है , मन को दोष देते रहेंगे, आवाज़ को दोष देते रहेंगे कि आवाज़ बहुत होता है ना !

ये बच्चे ऐसा करते हैं ना ! ये ऐसा होता है ना ! माना दोष हमेशा दूसरे पर डाल दो कि में ध्यान नहीं कर सकता हूँ , इसका कारण दूसरे हैं ! लेकिन मेरे में इतना प्यार है , भगवान के साथ हमारा दिल से इतना लगाव है ? अगर वो दिल से लगाव ही नहीं है , तो कहाँ भी बैठो आँखें खुली हो या बन्द हों आँखें बन्द होंगी तो नींद में चले जायेंगे , निद्रयोग हो जायेगा वो राजयोग नहीं होगा !

रोजयोग माना अपनी इन्द्रियों के ऊपर सम्पूर्ण राज्य अधिकार प्राप्त करना और राज्य अधिकार प्राप्त करना और राज्य अधिकार प्राप्त करते हुए मन को ध्यान में एकाग्र करना ! ऐसे नहीं कि खुली आँख है तो मन भाग जाता है और आँख बन्द है ध्यान लगा रहता है नहीं ! वास्तव में , आँखें बन्द करने से मन के ऊपर कंट्रोल खत्म हो जाता है और मन सारी दुनिया घूम कर आता है !

खुली आँख से यदि मन जाता भी है तो हमारा ध्यान जाता है , मन गया तो उसको खींचकर ला सकते हैं ! इसलिए खुली आँखें ज़रूरी है ! क्योंकि खुली आँख से ही मन को संयम में ला सकते हैं ! बन्द आँख से हमारा कंट्रोल उस पर खत्म हो जाता है ! खुली आँख से गया तो ये पता चलता है कि गया ! तब जागृति आती है कि मन गया उसको वापिस ले आतें हैं ! जिस वक्त्त हम ध्यान में बैठे हैं , तो मन इधर-उधर जाए नहीं ! ये ध्यान में बैठने की यथार्थ विधि है !

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4. चौथा है योग के लिए उचित आहार-विहार और शयन

चौथा है योग के लिए उचित आहार-विहार और शयन , जागरण , संतुलित शयन-जागरण आवश्यक है ! क्यों शयन-जागरण की बात आती है ? 

क्योंकि मनुष्य के लिए ये विज्ञान समझना बहुत ज़रूरी है ! मनुष्य जब ध्यान करने बैठता है , तो उसके लिए उचित समय कौन सा है ? ध्यान के लिए सर्वोच्च समय , सुबह ब्रह्ममुहूर्त दो बजे शुरू होता है ! परन्तु आजकल तो अधिकतर लोगों का सोना ही दो बजे के बाद होता है ! 

जब दो बजे सोयेंगे तो ब्रह्ममुहूर्त कब होता है पता ही नहीं चलता ! इस समय को अमृतवेला कहा जाता है अर्थात् अमृतपान करने का समय , क्यों ऐसा कहा गया है उसके पीछे भी एक साइंस है ! इसलिए पहले के ज़माने में बच्चों को सिखाया जाता था कि जल्दी सोओ , सुबह जल्दी उठकर पढ़ाई करो तो याद रहेगा ! 

रात को देर तक नहीं पढ़ो ! वास्तव में ये प्रकृति एक नियम में चलती है ! उसकी एक साइकल ( चक्र ) होती है ! जैसे ही संध्या हो जाती है , सूर्यास्त होने के बाद प्रकृति अपनी साइकल को चेंज कर लेती है ! वो ऑक्सीजन लेना और कार्बनडाइऑक्साइड छोड़ना शुरू कर देती है ! 

इसी तरह ब्रह्ममुहूर्त के समय वो पुनः अपनी साइकल को चेंज करता है अर्थात् प्रकृति जागृत होती है ! वो कार्बनडाइ ऑक्साइड लेना आरम्भ करती है और ऑक्सीजन छोड़ना शुरू करती है ! उस समय जो ऑक्सीजन निकलता है वो इतना फ्रेश क्वाँलिटी का होता है जो हमारे ब्रेन ( Brain ) को विकसित होने के लिए उपयोगी होता है ! 

वह अमृत के समान होता है ! इसलिए बच्चों को कहते हैं सुबह उठके पढ़ो ! फ्रेश ऑक्सीजन जब मिलता है , उस समय बच्चा पढ़ता है तो इतनी उत्तम क्वाँलिटी की ऑक्सीजन से उसकी मेमोरी पावर बढ़ने लगती है !

तब कहा उचित तथा संतुलित शयन-जागरण ! जैसे प्रकृति अपने नियम में चल रही है ! हम अपनी प्रकृति को शोषित ( Exploit ) क्यों कर रहें हैं ! हम अपनी प्रकृति को भी उसी अनुसार चलायें ! चलो जल्दी नहीं तो कम से कम दस-ग्यारह बजे सोने का तो रखे !

बाहर बजे से पहले अगर नींद की एक साइकल पूरी हो जाती है तो उसे काफी काफी उत्तम माना जाता है ! दूसरी दो साइकल आधी रात के बाद और सुबह चार बजे उठकर आप ध्यान में बैठेंगे तो उस समय जो ऑक्सीजन मिलती है , उस मन की एकाग्रता बढ़ती है ! आप देखेंगे कि कितना सुन्दर अनुभव होता है ! 

कई लोगों को उस समय आत्म साक्षात्कार होता है , क्योंकि फ्रेश क्वाँलिटी का ऑक्सीजन मिलती है , उससे मन की एकाग्रता इतनी बढ़ जाती है कि जिस एकाग्रता के द्वारा वह परमसिद्धि का अनुभव कर सकता है ! ये है साइंस हो सके तो सुबह ब्रह्ममुहूर्त में मेडिटेशन करके देखिए , कितनी मन की एकाग्रता रहती है ! उसके आधार पर ब्रेन विकसित होने लगता है ! 

दुनिया में जितने भी बहुत जीनियस लोग होकर गये हैं ! उनके जीवन के रहस्य यही बताते हैं कि वे सुबह जल्दी उठकर पढ़ाई करते थे , तब तो ब्रेन को इतना विकसित कर सके ! उसके आधार पर उनकी मानसिक, आंतरिक क्षमतायें बहुत बढ़ गयीं !

मेडिटेशन करते समय हमें भगवान से कुछ माँगना नहीं है ! अग्नि के पास हम खड़े होकर यह नहीं कहते हैं कि तुम हमें गर्मी दो वह तो हमें स्वतः मिलती है ! इसी तरह नदी के किनारे जाकर हम यह नहीं कहेंगे कि नदी तुम हमें ठण्डक दो ! वह हमें स्वतः मिलती है !

आप सिर्फ खड़े रहो तो आपके रोम-रोम में शीतलता का प्रवाह भर जायेगा ! ठीक इस तरह ईश्वर से कुछ माँगने की ज़रूरत नहीं है ! जब मन और बुद्धि को उस परमात्मा में एकाग्र करते हैं , अंतर्चक्षु को भी जब एकाग्र करते हैं तब मन में शुद्ध संक्लप करना है ! उसके लिए कुछ संक्लप आपको देते हैं !

आप सिर्फ विचार करो नहीं बल्कि उसके साथ-साथ अपनी भावनाओं को भी जोड़ते जाओ ! परमात्मा के प्रति शुभ भावनाओं को जोड़ते जाओ ! आप सिर्फ विचार करो नहीं बल्कि उसके साथ-साथ अपनी भावनाओं को भी जोड़ते जाओ परमात्मा के प्रति शुभ भावनाओं को जोड़ते जाओ ! जितना उसको जोड़ते जायेंगे उतना उस ऊर्जा को आप स्वयं में प्रवाहित होते हुए अनुभव करेंगे ! क्योंकि कहा जाता है कि जैसा सोचोगे वैसा बन बनोगे !

ये एक सिद्धांत है ! ये एक अनादि सिद्धांत है ! जैसे- जैसे आप को अगले अध्याय में विचार मिलते जायें , वैसे-वैसे आप मन में विचारों को ले आयें ! जितनी शारीरिक एकाग्रता होगी उतनी मन की एकाग्रता को ले आना सहज होगा !

जब मेडिटेशन करो तो कुछ क्षण के लिए हम अपने मन के विचारों को बाह्य सभी बातों से समेट कर अभ्यास करो , तो मन की एकाग्रता बढ़ जायेगी और सुख और शान्ति की अनुभूति होगी ! 

स्वयं.. को ..आत्मा..निश्चय.. करते हैं ! अंतर्चक्षु से…स्वयं को देखो..भृक्रुटी के मध्य में… मैं…अविनाशी.. ज्योतिपुंज हूँ.. दिव्य शक्त्ति हूँ.. अजर-अमर…सदा शाश्वत् ..में आत्मा.. इस शरीर रूपी मन्दिर में.. चैतन्य शक्त्ति हूँ.. आँखों द्वारा.. देखने वाली…मुख द्वारा बोलने वाली…कानों द्वारा… सुनने वाली…मैं …अति सूक्ष्म…दिव्य.. प्रकाश पुंज हूँ… धीरे…धीरे…अपने मन बुद्धि को..ले चलते हैं… एक यात्रा पर…अनंत की ओर.. पंच तत्व की दुनिया से दूर..सूर्य , चंद्र , तारागण से भी पार…परमधाम.. जो मुझ आत्मा का..असली घर है…

अंतर्चक्षु से…मैं स्वयं को..उस दिव्य लोक में देख रहा हूँ…. जहाँ चारो ओर… दिव्य प्रकाश फैला हुआ है… जहाँ कोई बन्धन नहीं… कोई बोझ नहीं… मैं आत्मा.. स्वतंत्र हूँ… सम्पूर्णमुक्त्त अवस्था में… कितनी सुन्दर महसूसता है ये …मुक्त्त अवस्था.. इस दिव्य लोक में …मैं आत्मा.. अपने सतोगुणी स्वरूप में. स्थित… मेरा असली स्वरूप.. शुद्ध और पवित्र है… अपने चारो ओर.. दिव्य प्रकाश का …आभामण्डल देख रही हूँ.. उस प्रभामण्डल में.. मैं आत्मा… प्रकाश पुंज हूँ.. मैं आत्मा.. अपने स्वधर्म में स्थित हूँ.. मेरा स्वधर्म.. शान्ति.. मेरे मन की गति..शान्त होती जा रही है… चारो ओर ..परम सुख समाया हुआ है.. जो सुख…अतीन्द्रिय सुख है.. इसी..शान्ति में..प्रसन्नता समायी हुई है.. मैं आत्मा.. शक्त्तिस्वरूप हूँ..

धीरे-धीरे..मैं अपने मन और बुद्धि को..पिता परमात्मा के सनिध्य में ले चलती हूँ ..जैसे में आत्मा..दिव्य प्रकाश पुंज हूँ.. वैसे मेरे पिता परमात्मा भी.. प्रकाश पुंज हैं.. दिव्य तेजोमय हैं..चारो ओर.. दिव्य प्रकाश का प्रभामण्डल है… कितना सुन्दर स्वरूप है.. अनंत है.. सर्वशक्त्तिमान है.. परमात्मा के सानिध्य में.. कुछ क्षण.. निवास करने का सौभाग्य.. कितना अमूल्य है… परमात्मा की..अनंत किरणें..चारो ओर… प्रवाहित हो रही हैं… और मैं स्वयं में.. सर्व शक्त्तियों की किरणों को..समाती जाती हूँ.. परमात्मा का..असीम प्यार.. मैं स्वयं में महसूस कर रही हूँ.. कितनी सौभाग्यशाली आत्मा हूँ.. जो परमात्म स्नेह की..पात्र आत्मा बन गयी..कितना सुन्दर अनुभव है ये…

कुछ क्षण के लिए.. अपने मन और बुद्धि को..उस दिव्य स्वरूप पर..एकाग्र करती हूँ.. और परमात्मा से..सर्वशक्त्तियों में.. समा जाती हूँ… जैसे अनंत किरणों की बाहों में… समाती जा रही हूँ.. सर्व शक्त्तियों के प्रवाह को…मैं स्वयं में …अनुभव कर रही हूँ… और मैं आत्मा.. सशक्त्त बनती जा रही हूँ… धीरे-धीरे..अपने मन और बुद्धि को..इस पंच तत्व की दुनिया की ओर.. भृक्रुटी के मध्य में.. स्थित करती हूँ.. और शरीर की सर्व कर्मेन्द्रियों द्वारा.. अपने हर कर्म में… व्यवहार में.. सम्बन्ध में.. इन गुणों की शक्त्तियों को…प्रवाहित करना है…. ओम् शान्ति.. शान्ति.. शान्ति…. शान्ति….!

B K Swarna
B K Swarnahttps://hapur.bk.ooo/
Sister B K Swarna is a Rajyoga Meditation Teacher, an orator. At the age of 15 she began her life's as a path of spirituality. In 1997 She fully dedicated her life in Brahmakumaris for spiritual service for humanity. Especially services for women empowering, stress & self management, development of Inner Values.

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