गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य (अठारहवाँ अध्याय )
“जीवन जीने की सम्पूर्ण विधि “
The Great Geeta Episode No• 060
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तीन प्रकार की धारणा की शक्त्ति
👉 सबसे श्रेष्ठ धारणा ( Concept ) की शक्त्ति है जिससे अपनी इन्द्रियों के ऊपर सम्पूर्ण अधिकार संभव है , और योगाभ्यास द्वारा उस अधिकार को प्राप्त कर सकते हैं ! इस प्रकार फिर भगवान ने अर्जुन को तीन प्रकार के सुखों की व्याख्या की है !
हे अर्जुन, तीन प्रकार के सुख का वर्णन सुन ! अर्थात् सबसे पहले त्याग और सन्यास की बात बतायी, उसके बाद ज्ञान तीन प्रकार का, कर्म तीन प्रकार का, कर्ता तीन प्रकार के, साथ ही साथ तीन प्रकार की, धारणा शक्त्ति तीन प्रकार की और उसके फलस्वरूप तीन प्रकार के सुख का वर्णन सुनने के लिए भगवान कहते हैं ! जिसमें रमण करने से मनुष्य प्रसन्न रहता है और जिससे दुःख का अन्त होता है !
जो सुख आरम्भ में विष के समान है अर्थात् जब मनुष्य मेहनत करता है तो मेहनत में उसको कठिनाई का अनुभव होता है ! आरम्भ में उसको कठिनाई अनुभव होती हो परन्तु परिणाम में अमृत के समान है वहआत्मस्वरूप में समाहित बुद्धि प्रसन्नता , निर्मलता , स्थिरता का सुख, अनुभव करती है ! यह सतोगुणी सुख है !
दूसरे प्रकार का जो सुख है राजसी सुख ! जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से उत्पन्न होता है ! वह प्रथम तो अमृत समान अनुभव होता है परन्तु परिणाम में विष तुल्य होता है !
तीसरा जो सुख के प्रति अंधा, प्रारम्भ से लेकर अन्त तक मोहग्रस्त है और जो आलस्य निंद्रा और प्रमोद अर्थात् गलतियों से उत्पन्न होता है वह तामसी सुख है ! आलसी व्यक्त्ति सारा दिन अगर बिस्तर पर पड़ा रहता है, तो वह सुख का अनुभव करता है लेकिन वह सुख तो तामसी सुख है तो इस प्रकार, तीन प्रकार के सुखों का अनुभव मनुष्य करता है !
तीन प्रकार की धारणा की शक्त्ति
फिर भगवान ने कहा- पृथ्वी पर ब्राह्यण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में प्रकृति के गुणों के अनुसार ये स्वभाव द्वारा, उत्पन्न गुणों के द्वारा भेद ( distinction) किया जाता है !
जैसा जिसका स्वभाव होता है, उस स्वभाव के अनुसार ही भेद किया जाता है ! पृथ्वी पर अथवा स्वर्ग के देवताओं में ऐसा कोई प्राणी नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीन गुणों से मुक्त्त हो ! तीन गुण कहाँ न कहाँ किसी में किस परसेन्टेज में और किसी में कौन-सा और किसी में कौन-सा अधिक रहता है !
पुरूषार्थ का मतलब ही यह है !
पुरूषार्थ माना पुरूष और अर्थ ! पुरूष अर्थात् आत्मा ! आत्मा की उन्नति अर्थ जितना हम सात्विक प्रकृति को विकसित करते जाते हैं, इसी का नाम पुरूषार्थ है ! यह पुरूषार्थ भगवान अर्जुन को भी करने के लिए कहते हैं और उसे प्रेरित करते हैं ! तो शान्तिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, क्षमाभाव , सरलता, सत्यनिष्ठ , ज्ञान-विज्ञान तथा धार्मिकता ये सारे स्वाभाविक गुणों द्वारा ब्राह्यण कर्म करता है ! ये ब्राह्यणों के कर्म करने का आधार है !
क्षत्रियों के कर्म करने का आधार कौन-सा ?
वीरता, शक्त्ति, संक्लप दक्षता, युद्ध में धैर्य , उदारता तथा नेतृत्व ये क्षत्रियों के स्वाभाविक गुण हैं !
वैश्यों के गुण कौन-से हैं ?
कृषि करना, गौ रक्षा तथा व्यापार, ये वैश्यों के स्वाभाविक कर्म होते हैं !
शूद्र कर्म कौन-से हैं ?
श्रम तथा अन्य की सेवा करना ! इस प्रकार वो शूद्र माने जाते हैं !
आज भले जन्म से इंसान कैसा भी हो अर्थात् जन्म से कोई ब्राह्यण भी हो लेकिन अगर उसके कर्म शूद्र के समान हों , तो वो उसी श्रेणी में माना जाता है !
भावार्थ ये है कि हम जितनी उन्नति करना चाहें उतनी उन्नति कर सकते हैं ! गौ रक्षा, कृषि करना, व्यापार ये वैश्य का स्वाभाविक गुण है ! व्यापार माना हर बात में बिज़नेस होता है !
यहाँ स्थूल बिज़नेस की बात नहीं है तुम मेरे लिए इतना करो तो मैं तुम्हारे लिए इतना करूँगा ! मैने इतना किया तो तुम भी इतना करो, ये हिसाब किताब नहीं तो क्या है ?
ये वैश्यवृत्ति नहीं तो क्या है ? अगर ब्राह्यण बन कर वैश्यवृत्ति रखने लगे तो वैश्य वर्ण में ही चला जाता है या उसके आगे का जन्म उसी अनुसार वह फाइनल कर लेता है, यहाँ दुनियावीं ब्राह्यणों की बात नहीं कही गई यहाँ तो केवल कर्म से ब्राह्यण की गुणों बात की है !
इसी तरह अगर व्यक्त्ति के अन्दर युद्ध करने की या संघर्ष की इच्छा होती है तो वह श्रत्रियों के गुण उसके जीवन में आ जाते हैं ! इस प्रकार के गुण स्वाभाविक रीति से व्यक्त्ति को उसी वर्ण के अन्दर ले आते हैं !
इसलिए दुनिया में ये भी कहावत है वाणी से वर्ण !
व्यक्त्ति की वाणी से पता चलता है कि वह किस वर्ण का है ! आगे के जन्म भी उसके किस वर्ण के होंगे या पिछला जन्म भी उसका किस वर्ण का होगा , जो अभी तक वो संस्कार उसके अन्दर स्पष्ट दिखाई देते हैं ! मनुष्य को अपने अन्दर परिवर्तन करना चाहिए !
भगवान ने गीता में यह उपदेश देते हुए कहा है कि अपने स्वभाव और विकास की स्थिति को पहचान, प्रत्येक व्यक्त्ति को अपने स्वाभाविक कर्म का , निष्ठापूर्वक पालन करना चाहिए ! परन्तु इसमें ईश्वर अर्पण भावना से कार्य करने में अहंकार सवर्था लुप्त हो जाता है !
अहंकार को जीतने की यही विधि है कि परमात्मा करनकरावनहार है और इसलिए जब कर्म करने के बाद भी वो भाव अन्दर में निर्मित होता है कि ये ईश्वर अर्पण है तो उसमें अहंकार लुप्त होने लगता है !
अहंकार के अभाव से अर्थात् कम होने से पूर्वाजित वासनाओं का क्षय ( नाश ) होता है और नवीन बंधन कारक वासना उत्पन्न नहीं होती है ! क्योंकि अहंकार ही सभी कमज़ोरियों की जड़ है !
काम , क्रोध, मोह, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष और आलस्य ये सब की जड़ अहंकार है !
अगर उस अहंकार को इंसान जीत ले तो इन सभी विकारों को जीतना आसान हो जाता है ! क्योंकि बीज को ही खत्म कर दिया तो बीज से उत्पन्न सारी बातें स्वतः ही समाप्त हो जाती हैं ! इसलिए कहा कि नवीन बंधनकारक वासनायें भी उत्पन्न नहीं होती हैं !
उसके अतिरिक्त्त चित्त की शुद्धि भी प्राप्त होती है ! जितना व्यक्त्ति अहंकार को जीत सकता है उतना उसके आंतरिक चित्त की शुद्धि होने लगती है ! जिसका अंतःकरण शुद्ध होता है, वह परमात्मा के दिव्य स्वरूप का अनुभव प्राप्त कर सकता है!
यही वास्तविक सिद्धि है ! उस परमात्म शक्त्ति का अनुभव करना यही वास्तविक सिद्धि है ! यह तभी हो सकता है , जब व्यक्त्ति अपने अहंकार को सम्पूर्ण रीति से जीत लेता है !
ज्ञान की पराकाष्ठा प्राप्त करने वाले के लक्षण
भगवान ने सर्वोच्च सिद्ध अवस्था अर्थात् ज्ञान की पराकाष्ठा प्राप्त करने वाले के लक्षण बताए हैं !
अपनी बुद्धि से शुद्ध होकर तथा धैर्यतापूर्वक मन को वश करते हुए इन्द्रिय तृप्त विषयों का त्याग कर राग-द्वेष से मुक्त्त होकर जो व्यक्त्ति एकांत स्थान में वास करता है !
जो अल्पाहारी हो, जो अपने शरीर, मन, वाणी को वश में रखता है, जो सदैव समाधी में रहता है तथा पूर्णताः विरक्त्त, मिथ्या अहंकार, मिथ्या शक्त्ति , मिथ्या गर्व, काम, क्रोध तथा भौतिक वस्तुओं के संग्रह से मुक्त्त है !
जो मिथ्या स्वामित्व की भावना से रहित है तथा शान्त है वह निश्चय ही आत्म साक्षात्कार के पद को प्राप्त होता है ! इस प्रकार जो दिव्य पद पर स्थित है , वह सर्वोच्च सिद्ध अवस्था को अनुभव करता है और प्रसन्न हो जाता है !
वह न शोक करता है, न किसी की कामना करता है और वह प्रत्येक जीव के प्रति समभाव अर्थात् आत्म-भाव को विकसित करता है ! ये सिद्ध अवस्था की या ज्ञान की पराकाष्ठा अर्थात् ज्ञान में उमंग रखने की स्थिति के लक्षण हैं !
👤अर्जुन यहाँ फिर एक प्रशन पूछता है कि ज्ञान की पराकाष्ठा क्या है ?
उत्तर:- भगवान कहते हैं जब अवस्था परिपक्व हो जाती है तब भगवान जो अलौकिक प्रभाव वाला है , अजर , अमर , शाश्वत् गुणधर्म वाला है उसे याथार्थ जान सकते हैं !
ये है ज्ञान की पराकाष्ठा अर्थात् परमात्मा के प्रति कोई मतभेद या कोई उलझन नहीं रहती है, परमात्मा जो है जैसा है उस स्वरूप में उसको जान लेना उसको प्राप्त करने के बराबर हो जाता है ! वह भगवान को आश्रय लेने वाला पुरूष सम्पूर्ण कर्म को सदा करते हुए , ईश्वरीय कृपा में सदा रहने वाले, अविनाशी पद को प्राप्त करता है !
हे अर्जुन ! सम्पूर्ण कर्म को मन से मुझे अर्पित करके बुद्धियोग मुझसे लगाओ ! इस प्रकार निरन्तर मुझमें चित्त लगाने वाला मेरी कृपा से सर्व विध्नों को पार कर लेता है !
परमात्मा ने यही बताया ! कई बार कई आत्मायें ये सोचती हैं कि भगवान की कृपा मेरे पर अनुभव क्यों नहीं होती है ! तो भगवान ने इसका भी रहस्य बता दिया कि भगवान की कृपा किस पर होती है !
जो निरन्तर चित्त लगाने वाला है वह मेरी कृपा से सर्व विध्नों को पार कर लेगा ! परन्तु यदि अहंकार वश तुम मेरी मत नहीं सुनोगे तो नष्ट हो जाओगे !
क्योंकि तुम्हारी प्रकृति अर्थात् संस्कार तुम्हें प्रवृत्त होने के लिए मजबूर करेगें ! कौन-से संस्कार ? जो अशुद्ध संस्कार हैं वह उसी दिशा में प्रवृत्त होने के लिए हमें मजबूर करते रहेंगे !