गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य (सोलहवाँ और सत्रहवाँ अध्याय )
“दैवी और आसुरी प्रकृति”
The Great Geeta Episode No• 057
ओम् ततसत्
फिर इस अध्याय के अन्त में यही बताया गया है कि
” ओम् ततसत् “
ओम् माना अहम् और अहम् माना मैं वो आत्मा
तत्व माना समस्त तत्व
सत् माना स्वभाव अर्थात् सत्य भाव, श्रेष्ठ भाव सत्य में दृढ़ता होती है ! तो दृढ़ भाव में अपने आपको स्थित करो !
जब आत्मा , अपने सम्पूर्ण आंतरिक तत्व ज्ञान, गुण और शक्त्तियों को श्रेष्ठ भाव , सत्य भाव और दृढ़ भाव में स्थित करती हैं तब उसका सदुपयोग होने लगता है !
ओम् शब्द में तीन अक्षर आते हैं !
अ , ऊ , म - अ माना आचरण , ऊ - माना उच्चारण , म माना मन के विचार !
तो आचरण , उच्चारण और मन के विचार ! मन , वचन और कर्म हमारी शक्त्तियाँ हैं ! ये तीन निवास स्थान में ही रहती हैं ! उसी के सत्य भाव , श्रेष्ठ भाव और दृढ़ भाव में समा लो ! तो हमारे मन के संक्लपों में भी वो दृढ़ता आ जायेगी !
हमारी वाणी में भी वो शक्त्ति आ जायेगी ! हमारे आचरण में श्रेष्ठता स्वतः आ जायेगी ! इसलिए कहा अ , ऊ और म !
मिसअंडरस्टैडिंग
लेकिन आज ये तीनों अलग-अलग दिशाओं में चल रही हैं ! कभी-कभी मन में बहुत सुन्दर विचार आते हैं ! लेकिन जब व्यक्त्त करने जाते हैं तो कुछ और निकल आता है ! फिर बाद में हमें मीफी मांगनी पड़ती है कि प्लीज़ आप मेरे मन के भाव को समझने का प्रयत्न करना , मेरे शब्दों की तरफ ध्यान नहीं देना ! अर्थात् स्पष्ट शब्दों में हम कहना चाहते हैं कि मेरे मन के भाव कुछ और हैं , मेरी वाणी कुछ और है ! दोनों में तालमेल नहीं है ! इसलिए प्लीज़ हमें गलत नहीं समझना !
जहाँ तक हमने सॉरी कह दिया वहाँ तक तो ठीक है ! लेकिन जहाँ व्यक्त्ति चला गया , उसके बाद महसूस हुआ कि मैने जो कहा वो बहुत बड़ी मिसअंडरस्टैडिंग को क्रियेट करेगा ! तो टेंशन होने लगता है ?
भावार्थ ये है कि मनुष्य अपनी शान्ति को नष्ट कैसे करते हैं , जब उसके मन के विचार उसके वाणी के साथ तालमेल नहीं रख रहा है ! अर्थात् सुसंवादिता में अर्थात् हारमनी में नहीं है तब टेंशन क्रियेट होता है !
उसके बाद जब कर्म में आओ तो कर्म में कुछ और ही हो जाता है ! फिर कहते हैं पता नहीं सोचा भी नहीं था , ये कैसे हो गया ?
सोचा कुछ और है बोला कुछ और है , किया कुछ और
अर्थात् स्पष्ट है कि सोचा कुछ और है बोला कुछ और है, किया कुछ और है ! जब ये तीनों हारमनी नहीं रही तो जीवन की गाड़ी का क्या हाल होगा ?
इसलिए जीवन में अगर सुख, शान्ति और आनन्द को प्राप्त करना चाहते हैं या अनुभव करना चाहते हैं तो इन तीनों को एक करने की आवश्यकता है ! जो हमारे मन के विचार हों ! वही हमारी वाणी हो और वही हमारे कर्म में हो , वही हमारा आचरण हो ! जब तीनों में हारमनी आने लगती है , तब हमारा जीवन सुसंस्कृत होने लगता है , श्रेष्ठ बनने लगता है !
इस तरह हम अपने संस्कारों को श्रेष्ठ बनाते जाते हैं ! अपने जीवन एक दिशा मिलती है , जो श्रेष्ठता की ओर जाती है ! आज मनुष्य में सबसे बड़ी कमज़ोरी आ गई है कि विचार अलग दिशा में भाग रहे हैं , वाणी कुछ और निकलती जा रही है जिसमें कोई कंट्रोल नहीं है !
पश्चात्ताप
बाद में पश्चात्ताप करना पड़ता है और आचरण कुछ और ही होता है ! जो मनुष्य बोलता वो कर नहीं पाता है , जो सोचता है वह बोल नहीं पाता है ! ये तो आज की सबसे बड़ी समस्या हो गयी है ! इसलिए मनुष्य अपने जीवन में अधिक परेशान है ! परेशानी और कोई बात की नहीं है ! परेशानी इसी बात की है कि तीनों को एक क्यों नहीं कर पा रहा है ! इस कारण से जीवन में हताशा बढ़ती जाती है !
पुरूषार्थ
हताशा तभी आती है जब ये तीनों अलग-अलग दिशा में हैं ! पुरूषार्थ करने के बावजूद भी ये एक नहीं हो पा रहे हैं ! तो ये है परमात्मा द्वारा स्पष्ट किया गया ‘ ओम् ततसत् ‘ का गहरा आध्यात्मिक रहस्य है ! अर्थात् जब ओम् शब्द का उच्चारण करो तो उस वक्त्त ये जागृति अन्दर में लो जाओ कि मेरे मन , वचन और कर्म तीनों एक हैं , सुसंवादिता में हैं !
ओम् शान्ति क्यों बोलते है ?
ओम् शान्ति शब्द भी जब कहते हैं , तो उसका भाव भी यही है कि जब मन , वचन , कर्म तीनों एक होंगे तो जीवन में शान्ति का अनुभव होगा ! ‘ ओम् शान्ति ‘ शब्द ये कोई हाय , हेलो , गुडमॉर्निंग की तरह नहीं है !
ये शब्द जागृति का है ! मेरे मन , वचन , कर्म एक हैं ! जितना उसको एक करते जायेंगे उतना जीवन में सुख , शान्ति , प्रसन्नता आने लगेगी ! बहुत सुन्दर जीवन का अनुभव हम इस जीवन में रहते हुए कर सकते हैं ! ये है जीवन जीने की कला !
इस चुनौतियों भरे युग में भी अगर ये तीनों अलग-अलग दिशा में चले गये , तो व्यक्त्ति को कितनी खींचातानी का अनुभव , जीवन में करना पड़ता है, कितना संघर्ष बढ़ जाता है ! लेकिन अगर चुनौतियों भरे युग में ये शक्त्ति हमारी इकठ्ठी हो गई है, ये सारे तत्व हमारे एक हो गये तो हमारे जीवन में शक्त्ति आने लगेगी जिस शक्त्ति के आधार पर कोई हमें भीतर से तोड़ नहीं सकता है ! कोई समस्या हमें तोड़ नहीं सकती है !
एक कहानी
एक बार एक बुजुर्ग था और उसके तीन बेटे थे !
ये तीनों बेटे सारा दिन आलसी होकर के अपना सारा समय व्यतीत करते रहते थे कोई खास काम-धंधा नहीं करते थे ! उस बुजुर्ग ने जीवन भर उनका जीवन भर उनका पालन-पोषण करते हुए बड़ा तो किया लेकिन जैसे ही उसको अपना अन्तिम समय नज़दीक आता हुआ दिखायी दिया , उसको चिंता होने लगी कि ये जो मेरे बेटे हैं कोई काम-धंधा नहीं कर रहे हैं ! इस तरह से जीवन कैसे चलेगा ?
ये तीनों आपस में भी लड़ते रहते हैं ! तो फिर उनकी शक्त्ति का भी क्या होगा ?
कोई भी उनका गलत उपयोग कर देगा , गलत दिशा पर ले चलेगा , संगदोष लग जायेगा ! तो जैसे उसको चिंता होने लगी ! एक दिन उसने अपने तीनों बेटों को बुलाया और तीनों बेटों को बुलाते हुए , लकड़ी की एक गठरी मंगवाई ! लकड़ियां सारी इकठ्ठी थीं ! एक बेटे को बताया कि ये गठरी खोल दो !
उसने उन लकड़ियों को अलग-अलग किया ! तीनों को एक-एक लकड़ी उठाने को कहा ! एक-एक लकड़ी तीनों ने उठा ली ! अब बुजुर्ग ने कहा इनको तोड़ दो ! तो तीनों ने एक ही झटके में दो टुकड़े कर दिए !
उसके बाद बुजुर्ग ने कहा कि ये जो बची हुई लकड़ियां है , इनको वापस बांध दो ! जब लकड़ी का बंडल बंध गया , तो उस बुजुर्ग ने कहा कि अब इस बंडल को तोड़ने का प्रयत्न करो ! बच्चों ने कहा बंडल कैसे टूटेगा ? बुजुर्ग ने कहा बेटे , यही तो मैं समझना चाहता हूँ !
अगर आप लोग अलग होकर लड़ते-झगड़ते रहे , तो आपकी शक्त्ति को कोई तोड़ देगा ! आपका दुरूपयोग करेगा , आपको गलत दिशा में ले जायेगा ! अगर आप बंड़ल की तरह बंधे रहे तो किसी की ताकत नहीं जो आपको तोड़ सके , आपको गलत दिशा पर ले जा सके ! इसलिए संगठन की शक्त्ति का महत्व है !
शिक्षा
जीवन में हम भी अगर परिवार में एक होकर रहते हैं तो पारिवारिक समस्याओं को कई तरह से सुलझा सकते है ! हमें जीवन जीने के लिए भी आसानी हो जाती है ! इकट्ठे होते हैं तो उस बंडल को तोड़ने की क्षमता किसी की भी नहीं होती है!
इस तरह से जब ये बात उन बच्चों को समझ में आ गयी , तब से उन्होंने निश्चय कर लिया कि आज के बाद हम कभी भी जीवन में लड़ेंगे नहीं ! एक-दूसरे से अलग नहीं होंगे ! एक होकर के हम चलेंगे !
तो ये जीवन जीने की कला है कि जब हम अपने मन , वचन , कर्म को एक कर देंगे , तो जीवन में शक्त्ति आयेगी , उस शक्त्ति के आधार से हमें कोई तोड़ नहीं सकता है ! हम जीवन में कभी दिलशिकस्त नहीं होंगे ! हम जीवन में कभी भी उदासी में आकर नहीं टूटेंगे !
हर रीति से हम अपने आपको सशक्त्त बनाकर चलते चलेंगे ! जीवन जीना आसान हो जायेगा ! अगर ये तीनों शक्त्तियाँ अलग-अलग दिशा में चली गई तो इन शक्त्तियों को तोड़ना, इन शक्त्तियों को भ्रमित करना आसान है !
कोई भी हमारे मन को भ्रमित कर देगा ! कोई हमारी वाणी को भ्रमित कर देगा और कोई हमारे कर्म को भ्रमित कर देगा ! इस प्रकार जीवन में दिलशिकस्तपना , जीवन से हारने का अनुभव होगा और हम टूटने लगेंगे ! ये जीवन को तोड़ने की विधि है !
यही संसार में आज हो गया है कि मनुष्य किस प्रकार छोटे-छोटे बच्चों को भ्रमित करते हैं ! जवानों को भ्रमित करते हैं ! पद से हटा देते हैं, इसलिए गीता में हमें भगवान ने यही सीख दी " ओम् ततसत् " यानि मन , वचन , कर्म को एक करते हुए ये समस्त तत्व के अन्दर सत्य भाव , श्रेष्ठ भाव और दृढ़ता को ले आयें तो जीवन में कोई उसको तोड़ नहीं सकता ! इस तरह ये हमारा जीवन है और जीवन जीने की कला है !
Meditation Commentary
जिस प्रकार मेडिटेशन की विधि हमने गीता के पाँचवे और छठे अध्याय में आरम्भ की, जहाँ परमात्मा ने हमें बताया कि किस प्रकार अपने मन को स्थित करना है ! आत्म-भाव या आत्म-स्थिति में जब मन को स्थित कर लेते हैं तो परमात्मा की याद सहज स्वाभाविक आती है !
सामने वो दिव्य स्वरूप है , परमात्मा परम प्रकाश तेजोमय परन्तु जैसे कहा चंद्रमा के समान शीतल प्रकाश से सम्पन्न है ! जो असीम प्यार की वर्षा करते हैं ! हम अपने मन के अन्दर उसका अनुभव करते जायें ! जैसे आप अपने विचार पढ़ते जाए ! आप अपने मन को भी उस अनुसार यात्रा पर ले चलेंगे !
अपने मन ….और बुद्धि को ..समस्त बाह्य बातों में… समेट लेते हैं … और अपने ….. अंतर्चक्षु से … भृक्रुटी के मध्य में … स्वयं को देखें … दिव्यपुंज ज्योतिस्वरूप में … मैं आत्मा …. अजर ,अमर , अविनाशी हूँ …. चैतन्य शक्त्ति हूँ …. धीरे-धीरे … अपने मन और बुद्धि को … ले चलते हैं … परमात्मा के सानिध्य में … देह और देह के सम्बन्धों से … अपने मन और बुद्धि को न्यारा करते हुए …. जहाँ चारों ओर … दिव्य प्रकाश छाया हुआ है … उस दिव्य लोक में … अंतर्चक्षु से स्वयं को देखती हूँ …. प्रकाश पुंज के रूप में … उस दिव्य लोक में … मैं आत्मा … अपने सम्पूर्ण … सतोगुणी स्वरूप … में स्थित हूँ … सतोगुण का प्रवाह .. चारो ओर .. प्रवाहित हो रहा है … ये सतोगुण … जैसे इंद्रधुनष के … सप्त रंगों की तरह हैं …. जो मुझ आत्मा में … दिव्य तेज का अनुभव करा रहे हैं … ये सतोगुण का … प्रभामंडल दिव्य और अलौकिक है … धीरे-धीरे … मैं स्वयं को … अपने पिता परमात्मा … दिव्य तेजोमय … सूर्य के समान प्रकाशमान हैं …. असीम प्रेम के सागर हैं …. ज्ञान के सागर हैं … ज्ञान की रोशनी से … मेरे मन के अंधकार को दूर करते जा रहे हैं … कितनी सौभाग्यशाली आत्मा में हूँ … जो परमात्मा के असीम प्यार की पात्र आत्मा बन गयी … पिता परमात्मा … वरदानों से मुझ आत्मा को … वरदानी आत्मा बना दिया … जैसे असीम … शक्त्तियों की किरणें … मुझ आत्मा को … सशक्त्त बनाती जा रही हैं … मैं आत्मा … स्वयं को धन्य-धन्य … अनुभव कर रही हूँ … कितनी सुन्दर दिशा प्राप्त होती जा रही है … मैं आत्मा … सर्व प्राप्तियों से … को भरपूर करती जा रही हूँ … कुछ क्षण के लिए .. परमात्मा के .. इस दिव्य प्यार में … समाती जा रही हूँ … प्रभु प्रेम की किरणों को … स्वयं में समाते … धीरे-धीरे … मैं अपने मन और बुद्धि को .. वापिस इस पंच तत्व की दुनिया … की ओर … शरीर में .. भृक्रुटी के मध्य में … स्थित करती हूँ … और प्रेम के प्रवाह को … नित्य सर्व … कर्म इन्द्रियों के द्वारा … हर कर्म में … प्रवाहित कर रही हूँ … ओम् शान्ति … शान्ति … शान्ति … शान्ति … !