गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य (सोलहवाँ और सत्रहवाँ अध्याय )
“दैवी और आसुरी प्रकृति”
The Great Geeta Episode No• 054
अध्याय सोलहवाँ
इस अध्याय में मनुष्य जीवन में दैवी और आसुरी स्वभाव का प्रभाव किस तरह पड़ता है , इसका वर्णन किया है !
संसार में सृजित प्राणी ( Human being ) दो प्रकार के हैं , दैवी स्वभाव वाले तथा आसुरी स्वभाव वाले !
प्रत्येक व्यक्त्ति के जीवन में सदगुणों रूपी दैवी सेना और दुर्गुणों रूपी आसुरी सेना एक-दूसरे के सामने खड़ी है, जिसका रूपात्मक वर्णन वेद में इंद्र और भात् के रूप में, पुराण में देव और दानव के रूप में किया है ! इस्लाम में अल्लाह और इब्बीस के रूप में किया है ! इस तरह से दैवी और आसुरी प्रकृति हर इंसान में मौजूद है और युद्ध या संघर्ष की बातें जो कि गई हैं इनके बीच के संघर्ष की बात है !
दैवी स्वभाव का प्रभाव
इस प्रकार सबसे पहले आध्यात्मिकता जीवन जीने वाले सुसंस्कृत पुरूष के आदर्श दिव्य गुणों को, इस तरह से भगवान ने स्पष्ट किया है कि व्यक्त्ति अभय बनता जाता अर्थात् उसके जीवन में कोई भय नहीं रहता है !
अंतःकरण की शुद्धि, ज्ञान योग में दृढ़ स्थिति, मानसिक स्थिति, दान, इन्दियों का संयम, यज्ञ, स्वध्याय, तपस्या, सरलता, अहिंसा, सत्यता, क्रोध मुक्त्ति, त्याग, शान्ति, परचिंतन और परदर्शन से मुक्त्ति, सर्व के प्रति दया एवं करूणा भाव, लोभ मुक्त्ति, मृदुता और विनयशीलता, दृढ़ संकल्पधारी, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, ईर्ष्या और सम्मान की अभिलाषा से मुक्त्ति , ये उसके विशेष सदगुण होते हैं और दिव्य गुण होते हैं ! इनसे उसके जीवन में आध्यात्मिकता पनप सकती है ! सुसंस्कृति अर्थात् सभ्यता उसके संस्कारों में आने लगती है ! तो यही उसके सर्व प्रथम लक्षण हैं !
आसुरी स्वभाव का प्रभाव
उसके साथ ही आसुरी प्रवृत्ति वाले मनुष्य में कौन-से अवगुण होते हैं या उसके जीवन में कौन से लक्षण दिखाई देते हैं ? उसको स्पष्ट करते हुए भगवान ने बताया है कि आसुरी प्रवृत्ति वाले मनुष्य के मत में ये संसार मिथ्या , निराधार और ईश्वर रहित है ! जो ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते हैं !
वे यह मानते हैं कि यह संसार कामेच्छा से उत्पन्न होता है ! विषय भोग ही उनके जीवन का परम लक्ष्य है !
ऐसे कभी न तृप्त होने वाली कामनाओं से भरपूर , दम्भी , अभिमानी , क्रोधी , कठोर , अज्ञानी और मद से युक्त्त , अशुभ संक्लप वाले , मोह ग्रस्त , दृष्ट इच्छाओं में प्रवृत्त रहने वाले , मंद बुद्धि , अपकारी , कुकर्मी , मनुष्य केवल संसार का नाश करने के लिए ही उत्पन्न होते हैं !
उनमें न पवित्रता न उचित आचरण और न ही सत्यता पायी जाती है ! ऐसे लोगों में ये लक्षण स्पष्ट दिखाई देते हैं !
आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग , लाखों इच्छाओं के जाल में बंधकर , विषय उपयोग की पूर्ति के लिए , अन्याय पूर्वक धन का संग्रह करना चाहते हैं ! जिस कारण सभी से शत्रुता बढ़ती जाती है और वे अपने शत्रुओं को मारना चाहते हैं !
- वह इसी भ्रम में जीने लगता है कि वह सर्व सम्पन्न है , उपयोगी है , सिद्ध पुरूष है , बलवान और सुखी है !
- ये भ्रम उसके अन्दर होता है कि मैं जो चाहे कर सकता हूँ , मै बलवान हूँ ! वह सोचता है कि उसके जैसा धनवान कोई नहीं है !
- श्रेष्ठ कुल में मैं जन्मा हूँ ! ऐसे अपने आप को श्रेष्ठ मानने वाले अहंकार के नशे में चूर रहते हैं !
- अपने नाम , मान , शान के लिए यज्ञ करते हैं और दान करते हैं ! अर्थात् दान के पीछे भी उनके मन में अनेक प्रकार की प्राप्ति की इच्छायें समायी रहती हैं ! ये उनके विशेष लक्षण देखे जाते हैं और पाए जाते हैं !
- अज्ञानता से भ्रमित चित्त वाले , मोह जाल में फंसे , विषय उपयोगों में आसक्त्त ये लोग घोर अपवित्र कर्म कर, नर्क समान जीवन जीते हैं !
- अहंकार , बल , पाखण्ड , कामी और क्रोधी सर्व की निंन्दा करने वाले , ये मनुष्यत्माओं से भी द्वेष करते और परमात्मा से भी द्वेष करते हैं !
- ऐसे द्वेष करने वाले कुकर्मी को बार-बार आसुरी प्रवृत्ति वाली योनियाँ ही प्राप्त होती हैं ! जिसको दूसरे शब्दों में नर्क समान जीवन कहा जाता है ! जिसके लिए शास्त्रों में गायन होता है कि वे नर्क के विष्टा समान कीड़े बन जाते हैं !
भावार्थ यही है कि
मनुष्य योनि में रहकर उनका जीवन पशु से भी अधिक बदतर हो जाता है ! लेकिन ऐसा नर्क समान जीवन जीने वाले को फिर भी यह अनुभूति कहाँ होती है ?
भगवान ने नर्क के तीन द्वार बतायें वो हैं- काम , क्रोध और लोभ !
इनसे आत्मा का पतन होता है ! इसलिए बुद्धिमान व्यक्त्ति को इन्हें त्याग देना चाहिए ! जो इससे बचे रहते हैं वे आत्म साक्षात्कार के लिए कल्याणकारी कार्य करते हैं , परमगति को प्राप्त करते हैं ! इसलिए ज्ञानयुक्त्त विधि विधान को जानकर कर्म करना चाहिए !
कर्मो की गुह्य गति को ओर परमात्मा ईशारा देते हैं और इसे स्पष्ट करते हैं कि मनुष्य जीवन हमें किसलिए मिला है ! कहा जाता है कि ये जीवन अनमोल है ! ये परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ रचना है जिसमें उसने एक विशेष शक्त्ति रखी है !
बुद्धि कहो या विवेक की शक्त्ति , जिसके आधार पर सही गलत को पहचानना आसान हो जाता है ! इस अमूल्य जीवन में रहते हुए भी व्यक्त्ति जब अपने विवेक का प्रयोग नहीं करता है , तो कैसे अपने जीवन को एक अद्योगति (Degration) के मार्ग पर या पतन की ओर ले जाता है या नर्क के द्वार की ओर बढ़ने लगता है !
यदि वो आत्म साक्षात्कार करके अपने जीवन को उन्नति की ओर ले जाता है तो परम कल्याणकारी मार्ग की ओर आगे बढ़ता है ! इस प्रकार आसुरी गुण वालों के लक्षण , दैवी संस्कार वालों के लक्षण को स्पष्ट करते हुए भगवान ने यही प्रेरणा दी है कि हमें किस ओर जाना है !
E.62 चिंतन, रिलेक्सेशन ऑफ माइंड, एक्सरसाईज़
योगेश्वर अर्थात् परमपिता परमात्मा ! संजय ने जो अनुभव किया वही धृतराष्ट को सुनाया ! इतना सुन्दर सन्देश कि उसकी स्मृति करने से भी मैं गदगद् हो उठता हूँ !
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E.61 धर्म और ज्ञान
ओम् माना अहम् और अहम् माना मैं वो आत्मा, तत्व माना समस्त तत्व, सत् माना स्वभाव अर्थात् सत्य भाव, श्रेष्ठ भाव सत्य में दृढ़ता होती है !
व्रत या उपवास का महत्व
एक बार एक राजा था जिसकी रानी बहुत सुंदर और बुद्धिमान थी। राजा ने अपनी रानी को सोने का एक खूबसूरत हार दिया था, जो उसकी गर्दन पर बहुत सुंदर लगता था। लेकिन एक दिन, रानी को लगा कि वह हार खो गई है और उसने पूरी दुनिया में उसकी तलाश शुरू कर दी।वह हर…
E.60 तीन प्रकार की बुद्धि, त्याग, सुख, धारणा, कर्म Part-3
ओम् माना अहम् और अहम् माना मैं वो आत्मा, तत्व माना समस्त तत्व, सत् माना स्वभाव अर्थात् सत्य भाव, श्रेष्ठ भाव सत्य में दृढ़ता होती है !
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E.59 तीन प्रकार की बुद्धि, त्याग, सुख, धारणा, कर्म Part-2
तीन प्रकार की बुद्धि (सतो , रजो, तमो)
तीन प्रकार का त्याग ( यज्ञ, दान और तप )
तीन प्रकार के सुख (सतो , रजो, तमो)
तीन प्रकार की धारणा की शक्त्ति
तीन प्रकार के कर्म (सतो , रजो, तमो)
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E.58 तीन प्रकार की बुद्धि, त्याग, सुख, धारणा, कर्म
तीन प्रकार की बुद्धि (सतो , रजो, तमो)
तीन प्रकार का त्याग ( यज्ञ, दान और तप )
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तीन प्रकार की धारणा की शक्त्ति
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