गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य (नवाँ, दसवाँ, गयारहवाँ एंव बारहवाँ अध्याय)
“समर्पण भाव”
The Great Geeta Episode No• 045
भगवान ने कहा- परिवर्तन का समय जब आ जाता है तब मैं इस धरा पर आता हूँ !
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।
परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।।
श्रीमद् भगवद्गीता के अध्याय 4, श्लोक 7 का श्लोक है
- हे भारत, जब-जब धर्म का लोप होता है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं (निराकार परमात्मा) धर्म के अभ्युत्थान के लिए स्वयम् की रचना करता हूं अर्थात अवतार लेता हूं!
- जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब मैं आता हूं !
- जब-जब अधर्म बढ़ता है तब-तब मैं साकार रूप (बूढ़े मानव तन का आधार लेता हूँ जिसका नाम है प्रिजपिता ब्रह्मा ) से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं !
- सज्जन लोगों की रक्षा के लिए मैं आता हूं !
- दुष्टों के विनाश करने के लिए मैं आता हूं !
- एक सच्चे सनातन धर्म की स्थापना के लिए में आता हूं और युग युग में जन्म लेता हूं !
तब परमात्मा कहते हैं कि मैं मनुष्य रूप में अर्थात् अति साधारण रूप में अवतरित होता हूँ ! क्योंकि इस युग में यदि भगवान श्रीकृष्ण के रूप में अवतरित हो तो लोग उसको कार्य ही न करने दें !
सोचो:
आज कई महान आत्मायें भी जो करना चाहते हैं , तो लोग उनके पीछे लग जाते हैं , जो उनको अपना कार्य ही नहीं करने देते हैं ! इसी तरह भगवान भी अगर श्रीकृष्ण के रूप में अवतरित होगा , तो लोग उनकी पूजा करने के लिए ऐसे ही पीछे लग जायेंगे ! जो वो पूजा कराते-कराते समय बीत जायेगा तो वो अपना कार्य कब करोंगे !
यह समझने की बात है ! तो इसलिए कहा है कि जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ तो मूर्ख मेरा उपहास करते हैं ! क्योंकि वो भगवान को समझ नहीं पाते हैं ! वो मुझ परमेश्वर के दिव्य रूप को नहीं जानते ! कियोंकि वो मोहग्रस्त आसुरी स्वभाव वाले होते हैं !
यहाँ पुनः अर्जुन को ये संकेत दिया कि अभी तक भी तुम्हारा मोह दूर नहीं हुआ है और इसलिए तुम मेरे अवतरण होने का रहस्य समझ नहीं पा रहे हो ! पुनः अर्जुन पूछता है , तो कौन जानता है ?
ये तीसरी बार अर्जुन ने भगवान से सवाल किया कि कौन आप को जान सकता है !
भगवान बताते हैं कि जो रजो गुण स्वभाव वाले होते हैं वो मुझ परमात्मा को नहीं जान पाते हैं ! दूसरी बार जब पूछा तो कहा जो मोह से ग्रस्त राग , द्वेष , काम , क्रोध के वश हैं वो मुझे जान नहीं पाते हैं ! तीसरी बार जब अर्जुन ने पूछा , तो कौन जानते हैं ! तो भगवान पुनः उसका उत्तर देते हैं – जो मोह से मुक्त्त , दैवी प्रकृति अर्थात् दैवी संस्कारों के आधार से जीने वाले हैं वे मुझे अनादि, अविनाशी स्वरूप में जानकर अनन्य भाव से याद करते हैं ! वह दृढ़तापूर्वक नित्य योगयुक्त्त रहने का पुरूषार्थ करते हैं !
इसलिए जितना व्यक्त्ति अपने मोह के जाल से मुक्त्त होता है , वही परमात्मा के अनादि स्वरूप को समझ पाता है ! तब वह योगयुक्त्त रहने के पुरूषार्थ में लग जाता है और दृढ़तापूर्वक पुरूषार्थ करने लग जाता है ! दृढ़ता बहुत आवश्यक है क्योंकि की दृढ़ता के बिना सफलता को प्राप्त नहीं कर पायेंगे !
साधारण संक्लपों से अगर पुरूषार्थ करना आरम्भ कर दिया तो बार-बार मोह की रस्सियाँ उसको खीचती रहेगी ! इसलिए वो उस पुरूषार्थ में तीव्र गति से आगे बढ़ नहीं पायेगा ! जितना तीव्र गति से समय परिवर्तन हो रहा है , उतना तीव्र गति से हमें भी पुरूषार्थ करने की आवश्यकता है !
भगवान आगे बताते हैं कि –
जो ज्ञान के अध्ययन के साथ एक तो योगयुक्त्त रहता है , दृढ़तापूर्वक पुरूषार्थ करता है , मोह से मुक्त्त होता है ! फिर कहा कि जो ज्ञान का अध्ययन करते हैं , सोमरस पान करते हैं और यज्ञ सेवा करते हैं ! वो पापकर्म से शुद्ध होकर पवित्र स्वर्गधाम में जन्म लेते हैं ! इस संसार से जैसे ही वे आत्मायें प्रयाण अर्थात् कूच करती हैं तो वे पवित्र आत्मायें स्वर्गधाम में जन्म लेती हैं जहाँ वे देवपद का आनन्द भोगती हैं !
इसलिए कहा जाता है कि " मनुष्य से देवता किए करत लागे न वार " भगवान को परिवर्तन करने में कोई देर नहीं लगती है ! नर से श्री नारायण , नारी से श्रीलक्ष्मी समान बनाना ये भगवान के लिए कोई बड़ी बात नहीं है ! लेकिन कैसे बनाते हैं ये नहीं कोई जादू की छड़ी घुमा दी और व्यक्त्ति को नर से नारायण और नारी से श्रीलक्ष्मी बना दिया ! नहीं , इसके लिए पुरूषार्थ बहुत ज़रूरी है !
जो जिस गति से और जितनी शक्त्ति से पुरूषार्थ करते हैं उतना ही वो आगे बढ़ सकते हैं ! उसके लिए जैसे कहा ज्ञान का अध्ययन और सोमरस अर्थात् अमृत पान, ज्ञानामृत है ! ये अमृत पान करते हैं , यज्ञ सेवा करते हैं अर्थात् अपने शुद्धिकरण के प्रोसेस में जो नित्य लगकर के दूसरों को भी प्रेरणा देते हैं ये है बड़ी सेवा !
- किसी के जीवन को सुधारने के लिए, उसको दिशा बताने के लिए आत्म शुद्धिकरण की ओर उससे बड़ी सेवा और कोई हो नहीं सकती !
- तो वो सर्व पाप कर्मों से शुद्ध हो जाते हैं क्योंकि सेवा एक ऐसी अग्नि है जिसमें शुद्धिकरण से वो पवित्र स्वर्गधाम में जन्म लेता है !
- अर्थात् नर से नारायण पद को प्राप्त करता है !
- स्वर्गधाम में जन्म तो लेता है , लेकिन जैसे-जैसे पुण्य क्षीण होते जाते हैं , तो पुनः सतयुग से उसकी यात्रा आरम्भ हो जाती है !
- जिस प्रकार संसार का भी ये नियम है कि कोई भी चीज़ नयी बनती हैं , तो नयी से पुरानी होना ये स्वाभाविक है !
When doubts haunts me , when disappointments stare me in the face, and I see not ray of hope on the horizon, I turn to Bhagavad gita and find a verse to comfort me; and I immeditately begain to smile in the midst of overwhelming sorrow. Those who meditate on the GITA will derive fresh joy and new meaning from it every day “
महात्मा गांधी
ठीक इसी तरह जैसे ही व्यक्त्ति पुरूषार्थ करता है , कल्प के अन्त में , अपना आत्म शुद्धिकरण करता है और उस आत्म-शुद्धिकरण से स्वर्ग में पवित्र धाम में जा कर देवपद को प्राप्त करता है ! वहाँ जो जन्म है , वो जैसे कि बैंक बैंलस किया हुआ है जैसे वह उसे उठा-उठाकर खाते जाता है तो क्या होता है ? क्षीण होने लगता है और वो क्षीण होते-होते , पुनः मृत्यु लोक में आ जाता है !
पूर्ण खिला हुआ चंद्रमा है ! वह पूर्णमासी में कितने दिन रहता है ? एक घड़ी , दूसरी घड़ी से फिर उसकी अमावस की ओर यात्रा चलने लगती है ! अमावस में कितना समय रहता है ! एक घड़ी , फिर पुनः उसकी पूर्णमासी की ओर यात्रा होने लगती है ! ठीक इसी तरह आत्माओं की भी सम्पूर्ण अवस्था सतयुग में होती है ! सोलह कला सम्पूर्ण , सम्पूर्ण निर्विकारी , मर्यादा पुरूषोत्तम , श्रेष्ठ गति को प्राप्त कर लेते हैं !
लेकिन उस गति के बाद धीरे-धीरे…उसकी भी अमावस की तरफ यात्रा प्रारम्भ होती है ! अर्थात् कलियुग तक मृत्युलोक तक आते हैं , लेकिन फिर वहाँ पुरूषार्थ करते हुए पुनः उस अमरलोक की ओर जाते हैं ! तो परिवर्तन नित्य है ! परिवर्तन हमें दिखाई नहीं देता है ! ध्यान देकर देखे , तो परिवर्तन नज़र आता है ! हर घड़ी , हर व्यक्त्ति के अन्दर परिवर्तन की प्रक्रिया चल रही है !
इस शरीर में भी परिवर्तन हो रहा है ! मनोवृत्ति में भी परिवर्तन हो रहा है ! भावनाओं में भी परिवर्तन हो रहा है ! परिवर्तन कहाँ नहीं हो रहा है ? इसलिए कहा है कि जब वो पुण्य क्षीण होने लगते हैं तो पुनः मृत्युलोक में आ जाते हैं ! इस प्रकार जन्म-मृत्यु के चक्र में आते जाते रहते हैं !
- कुदरत के नियम के अनुसार उसको चलना ही है ! उसमें में जो अनन्य भाव से मेरे दिव्य स्वरूप का ध्यान करते हुए निरन्तर मुझे याद करते हैं , उनकी आवश्यकताओं को में पूरा करता हूँ ! देखो ये भगवान का वायदा है !
- जो जितना मेरे दिव्य स्वरूप का ध्यान करते हुए निरन्तर मुझे याद करते हैं , निःस्वार्थ भाव से , उनकी हर आवश्यकता को मैं पूरा करता हूँ !
- जैसे एक बच्चे की आवश्यकता वो खुद नहीं जानता है , लेकिन माँ-बाप को पता है कि बच्चे की आवश्यकता क्या है ?
- उस अनुसार उसको वो चीज़ देते जाते हैं ! उसके लिए लाते जाते हैं ! उसको माँगने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती है !
- बच्चा इस क्लास में आया तो उसको इतनी चीज़ें लगेंगी ! अपने आप माँ-बाप बाज़ार में जाकर के वो चीज़ें ले आते हैं ! बच्चा निश्चिंत है !
- इसी प्रकार आत्मायें भी जितना अनन्य भाव से , ह्रदय से उस परमात्मा के दिव्य स्वरूप को याद करती रहती हैं , उनकी आवश्यकताओं को परमात्मा पूरा करते हैं !
उसके बदले में भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन ! कोई फूल-फल जो भी श्रद्धा से देता है उसे मैं स्वीकार करता हूँ ! अतः अर्जुन तू जो कुछ आराधना करता है , मुझे समर्पित कर !
बार-बार भगवान अर्जुन को कह रहें हैं , कि तू सम्पूर्ण समर्पण कर ! जब सर्वस्य त्याग हो जायेगा तब योग से युक्त्त हुआ तू कर्मों के बन्धन से मुक्त्त होता जायेगा ! इसलिए समर्पण भाव बुद्धि की बात है ! कोई शरीर से समर्पण होने की बात नहीं है!
किसी व्यक्त्ति ने सब कुछ त्याग दिया हो लेकिन अगर उसकी मनोवृत्ति में परिवर्तन नहीं आया है , तो उस परिवर्तन के बिना कुछ भी प्रैक्टिकल नहीं माना जा सकता ! इसलिए समपर्ण भाव जो लाने के लिए कहा है ये अन्दर ह्रदय की बात है ! कोई कहाँ भी है समपर्ण भाव को जागृत कर सकता है !
किसी भी रूप से वो भगवान को जब निरन्तर उसके दिव्य स्वरूप को जानकर के याद करता है और अगर श्रद्धा से उसको फल फूल अर्पण भी करता है तो भी वो उसे स्वीकार करता है ! इस अध्याय के अन्त में बहुत सुन्दर बात कही कि दुनिया के सब प्राणियों के प्रति मेरा सम भाव है !
भगवान कभी किसी के लिए पक्षपात नहीं करता है , न किसी से द्वेष , न पक्षपात ! बहुत स्पष्ट ही कह दिया है कि जो मेरी अनन्य भाव से सेवा करता है , वह मेरा मित्र है !