गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य (सातवाँ और आठवाँ अध्याय)
“आत्म-स्वरूप स्थिति”
The Great Geeta Episode No• 043
ध्यान में बैठना है
आज आप मान लो कि आप अपने बेटे से इतना प्यार करो ! सुबह उठाने से लेकर रात्रि तक और आप उसका इंतजार करते रहो कि मेरा बेटा एक बार तो मेरी तरफ देखे और वो आपकी तरफ देखता तक न हो ! आपको कैसे लगेगा !
इसलिए भगवान हमारे मात-पिता हैं , वो इतना प्यार करते हैं , तो कम से कम हम भी तो उनके प्यार का रिसपांड तो करें ? फिर भी वो कितना दयालू , कृपालू है कि जब भी हमारे सामने कोई परिस्थिति आती है तो फिर भी अदृश्य रूप में शक्त्ति देते है ! इतना दायलु , कृपालु कहाँ मिलेगा ?
यह अनुभव अगर करके देखो तो पता चलता है कि सचमुच भगवान का प्यार कितना है ! और हम एक बार भी सुबह से रात तक , उनकी तरफ देखते नहीं ! और उसके बाद भी भगवान के सामने ही शिकायत करते हैं कि हे प्रभु ! मेरा मन तो लगता ही नहीं है ! कैसा वो बच्चा होगा जो अपने माँ बाप को कहे कि भई मेरा मन तो आपमें लगता ही नहीं है ! इसलिए मैं क्या करूं ! माँ-बाप को कैसे लगेगा अगर बच्चा ऐसा कहेगा ?
जब ध्यान में बैठना है , तो ध्यान उसी का ही लगता है – जिसके ह्रदय में अनन्य भाव हो , ईश्वर के प्रति ! देखो कैसे भगवान भी उसको रिसपांड करते हैं ! आगे भगवान समझाते हैं कि सतयुग , त्रेतायुग , द्वापरयुग और कलियुग इन चारों युगों का एक कल्प होता है ! सतयुग , त्रेतायुग ये ब्रह्या का दिन माना जाता है तथा द्वापर और कलियुग से ब्रह्या की रात्रि मानी जाती है !
ब्रह्या के दिन अर्थात् सतयुग , त्रेतायुग के आरम्भ में आत्मायें अव्यक्त्त से व्यक्त्त प्रकृति का आधार लेती हैं ! इस संसार में आती हैं ! और जब ब्रह्या की रात्रि का अन्त होता है अर्थात् द्वापर , कलियुग का अन्त होता है , तो सभी आत्मायें व्यक्त्त ( साकार शरीर से ) से अव्यक्त्त ( बिना शरीर से आत्मा ) अवस्था में चले जाते हैं ! फिर घर अर्थात् आत्माओं की दुनिया में जाना पड़ता है ! ये दुनिया अर्थात् सृष्टि का क्रम है और इस तरह से ये संसार का चक्र चलता है !
परन्तु इसके अतिरिक्त्त एक अव्यक्त्त , शाश्वत प्रकृति है जो सभी पंच महाभूतों के नाश होने पर भी नाश नहीं होती है ! वो दिव्य लोक नाश नहीं होता जो व्यक्त्त और अव्यक्त्त अवस्था से श्रेष्ठ है ! अविनाशी और सबसे परे है ! भगवान कहते हैं वही मेरा परमधाम है ! जहाँ पर मैं विराजमान होता हूँ !
यानि अभी तक भी अर्जुन श्रीकृष्ण के रूप में ही भगवान को देख रहा था ! तब भगवान पुनः स्पष्ट करते हैं कि हे अर्जुन ! मैं उसी अविनाशी सबसे परे ते परे लोक में , जिसको परमधाम कहा जाता है वहाँ मैं विराजमान होता हूँ ! भगवान स्पष्ट बता रहे हैं कि मैं इस संसार में नहीं होता हूँ !
मैं वहाँ रहता हूँ ! कहते भी है न कि ” उच्चे से उच्चा तेरा धाम , उच्चा तेरा काम और उच्चा तेरा नाम ” ! लेकिन अधर्म के नाश के समय ( वर्तमान समय ) पर मैं ऐसे युगे युगे अवतरित होता हूँ , उस अव्यक्त्त धाम अर्थात् परमधाम जो इस चाँद- सितारों से ऊपर है से इस व्यक्त्त धाम में सकारी दुनिया में !
फिर भगवान इस संसार से जाने के दो मार्ग बताते हैं ताकि हर इंसान भी अपने लिए स्पष्ट कर ले कि मुझे कौन से मार्ग में जाना है ! तो इस अध्याय के अन्त में भगवान कहते हैं कि संसार से प्रयाण ( कूच ) करने के दो मार्ग हैं :-
एक प्रकाश का मार्ग है और दूसरा अंधकार का मार्ग है !
- एक तो मनुष्य प्रकाश के मार्ग से जाता है ! वह ज्ञानयुक्त्त , कर्म मार्ग अर्थात् जिसमें यज्ञ सेवा की अग्नि जलती हो ! यानी जिसकी बुद्धि ज्ञानयुक्त्त बुद्धि हो , कर्मयोगी हो जो कर्म करते हुए भी नित्य परमात्मा की याद में हो ! जिसमें यज्ञ सेवा अर्थात् आत्मा के शुद्धिकरण की सेवा में जो नित्य अग्नि जलाए हुए हो , बुद्धि भी सूर्य के समान चमकती हो अर्थात् जिसकी बुद्धि कलीन और कलीयर हो , ह्रदय में आसाक्त्ति के बादल न हो और भावनाओं का पूर्ण उजाला हो ! ऐसे मनुष्य प्रकाश के मार्ग से जाते हैं अर्थात् यदि तब प्राण तन से निकलें वह पुरूष श्रेष्ठ गति को प्राप्त होता है !
- दूसरा जो अंधकार से जाने वाले होते हैं उनके अन्दर ये गुण नहीं होते हैं !
इसलिए हर व्यक्त्ति अपने लिए भी निश्चित करे कि मुझे किस तरह से अपनी अन्तिम घड़ी को ले जाना है ताकि एक श्रेष्ठ गति को हम प्राप्त कर लें ! तो उसके लिए जो लक्षण हैं- ज्ञानयुक्त्त बुद्धि , कर्मयोगी जीवन जिसमें यज्ञ सेवा की अग्नि जलती हो अर्थात् सेवा भावना से भरपूर हो !
आत्मा के शुद्धिकरण की सेवा नित्य करता हो अर्थात् भगवान को याद करता हो ! जिसकी बुद्धि की प्रभा सूर्य के समान हो , इतनी बुद्धि तेजस्वी हो ! ह्रदय में कोई आसाक्त्ति न हो कोई इच्छा न हो , किसी प्रकार की द्वेष की भावना न हो और भावनाओं में श्रेष्ठता हो , ये लक्षण हैं श्रेष्ठ गति को प्राप्त होने वाले की स्थिति के लिए !
इसलिए श्रीमदभगवदगीता में भगवान ने हमें यही प्रेरणा दी कि हमें अपने जीवन में किस तरह इस उजाले को भरना है और उसके लिए जितना योग अभ्यास यानि परमात्मा के साथ जो दिव्य तेजोमय प्रकाश स्वरूप , जो सूक्ष्म ते सूक्ष्म , जगत का नियंता , सर्वज्ञ , अति सूक्ष्म दिव्य ज्योति प्रकाश स्वरूप है , उसके साथ सम्बन्ध जोड़ना है !
उसके साथ जितना हम बुद्धि योग लगाते हैं और अनन्य भाव ह्रदय में भरते हुए उस परमात्मा की स्मृति में बैठते हैं तब परमात्मा की याद सहज स्वाभाविक आने लगती है ! मन अपनी चंचलता को समाप्त कर देता है और तह जीवन में फिर भी अगर कोई ऐसी बात हो कि मन अपनी चंचलता कर रहा हो , तो कोई बात नहीं भगवान ने भी भी आश्वासन दिया है कि फिर से उसको खींच कर ले आओ और पुनः उसको स्वरूप उस स्वरूप में जोड़ो !
इस तरह से हमें योग अर्थात् याद के लिए निरन्तर अभ्यास , पुरूषार्थ करने की आवश्यकता है !
मन को ले जायेंगे परमधाम की ओर ! कहा कि मन की रूचि है कि उसको घूमना अच्छा लगता है ! वो घूमता रहता है ! लेकिन जितना मन को घूमने की आदत है उतना ही वही उसकी रूचि को हम योग में परिवर्तन करते हैं !
तो ले चलते हैं परमधाम , परमात्मा के सानिध्य में उस दिव्य स्वरूप में जा कर मन को एकाग्र करते हैं और एकाग्र करते हुए अपने जीवन में उस परम शक्त्ति , परम प्रकाश के उजाले को आने दें ! उसी के आधार पर अपने जीवन को प्रकाशित कर लें ! अपनी बुद्धि को तेजस्वी बना दें !
तो ये परमधाम ( जहाँ से हम आत्माएँ आई है और जहाँ हमने अपना पार्ट बज़ा कर वापिस जाना हैं हम आत्माओं का घर ) के साथ ध्यान लगाने की विधि है ! भाव को भरते हुए अपने में उस शक्त्ति को महसूस करें ! इससे आप को गहन शान्ति का अनुभव करेंगे !
योग का अभ्यास
⏰ कुछ क्षण के लिए…. अपने मन और बुद्धि को….बाह्य सभी बातों से….समेट लेते हैं ! तन की एकाग्रता….मन को एकाग्रता को सहज ले आता है !…इसलिए अपने शरीर को भी…. अपनी इन्द्रियों को भी….. एकाग्र कर लें ! अंतर्चक्षु से….स्वयं को..भृक्रुटी के मध्य में… आत्मा रूप प्रकाश पुंज स्वरूप में… एकाग्र करती हूँ…. ये शरीर मेरा साधन है….. मैं आत्मा साधक हूँ… आत्मा स्वरूप में… अपने मन को स्थिर करें…मैं आत्मा अति सूक्ष्म… प्रकाश स्वरूप हूँ… अजर, अमर , अविनाशी शक्त्ति… चैतन्य शक्त्ति… धीरे-धीरे….मन बुद्धि को…ले चलते हैं एक यात्रा पर ….परमधाम की ओर… पंच तत्व की दुनिया से दूर…सूर्य , चंद्र, तारागण से भी पार….परमधाम में… जो दिव्य प्रकाश से …आलोकित है…. जहाँ चारों ओर… दिव्य प्रकाश फैला हुआ.. अंतर्चक्षु से….स्वयं को उस दिव्य लोक में.. निहार रही हूँ….. जहाँ कोई बन्धन नहीं… कोई बोझ नहीं… मैं स्वतंत्र हूँ… सम्पूर्ण मुक्त्त अवस्था में हूँ… मैं आत्मा… अपने ..सम्पूर्ण सतोगुणी स्वरूप में… मेरा स्वरूप… शुद्ध और पवित्र है… दिव्य प्रकाशमान है… चारों ओर.. पवित्रता का दिव्य आभा….फैली हुई है.. उस दिव्य प्रभा मंडल में.. मैं स्वयं को देख रही हूँ.. महसूस कर रही हूँ… कितना सुन्दर स्वरूप है ये मेरा…कितना अलौकिक रूप में ये मेरा..धीरे-धीरे …..मैं स्वयं को …पिता परमात्मा के सानिध्य में देख रही हूँ…. जैसे मैं आत्मा… प्रकाशपुंज हूँ…. वैसे मेरे मात-पिता परमात्मा भी… दिव्य प्रकाशपुज़ हैं… सूक्ष्म ते सूक्ष्म… अति सूक्ष्म स्वरूप हैं…. परन्तु तेजोमय हैं… चारों ओर… दिव्य प्रकाश का आभामण्डल है…. जो सर्वश्रेष्ठ है… सर्वशक्त्तिमान है….. मनुष्य सृष्टि का….बीज रूप है…. सभी देवों का देव है…. सर्वोच्च शक्त्ति है…. उस सर्वश्रेष्ठ परमात्मा के सानिध्य में.. स्वयं को महसूस कर रही हूँ… सर्वशक्त्तिमान परमात्मा से….सर्वशक्त्तियों की किरणों को….मैं स्वयं में समाती जाती हूँ… मेरा पिता परमात्मा… प्रेम के सागर हैं…. असीम प्रेम… मुझपर बरस रहा है…. मैं कितना सौभाग्यशाली हूँ…. जो परमात्मा प्रेम की…पात्र आत्मा बन गयी…कितना सुन्दर अनुभव है ये…परमात्मा की अनन्त किरणें …मुझमें समाती जा रही हैं… जैसे अनन्त किरणों की बाहों में…. परमात्मा मुझे समाते जा रहे हैं… समा जाओ.. खो जाओ.. परमात्मा प्रेम… मेरे इस जीवन को धन्य-धन्य कर रहा है… कितना सुन्दर ये अनुभव… जैसे परमात्म प्यार के झूले में… मैं हर पल …व्यतीत कर रही हूँ… सर्व सम्बन्धों का सुख… परमात्मा से…प्राप्त कर रही हूँ… जो सुख.. अतीन्द्रिय सुख है…. सुख को स्वयं में समाते हुए…मैं अपने मन और बुद्धि को…वापिस …इस पंचतत्व की दुनिया की ओर… शरीर में…. भृक्रुटी के मध्य में… स्थित करती हूँ… अपने सर्व कर्मेन्द्रियों को….अधिकार में ले रही हूँ… और स्वयं को…आत्मा के स्वधर्म में… स्थित करती हूँ… अब मुझे परमात्म स्नेह को….सर्वशक्त्तियों को…हर कर्मोन्द्रिय द्वारा.. नित्य प्रवाह करना है…. अपने कर्म में… व्यवहार में… ओम् शान्ति…. शान्ति… शान्ति…!