E.31 सन्यास योग और कर्मयोग में क्या अन्तर है ?

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गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य (पाँचवां और छठाा अध्याय )

“परमात्म-अवतरण एवं कर्मयोग”

The Great Geeta Episode No• 031

सन्यास योग और कर्म योग

पाँचवे अध्याय में भगवान बताते हैं कि सन्यास योग और कर्मयोग में क्या अन्तर है ?

ज्ञानी पुरूष दिव्य ज्ञान की अग्नि से शुद्ध होकर बाहरी रूप से सारे कर्म करता है ! किन्तु अन्तर में उस कर्म के फल का परित्याग करता हुआ शान्ति , विरक्त्ति , सहनशीलता , आध्यात्मिक दृष्टि तथा आनन्द की प्राप्ति कर लेता है !

यहाँ पर पुनः अर्जुन एक प्रशन पूछता है कि सन्यास योग और कर्मयोग में क्या अन्तर है ?

Truegyantree Sanyasi

सन्यास योग

भगवान उसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि

सन्यास का मतलब ये नहीं कि घर-गृहस्थ का सन्यास कर दें , कोई ज़िम्मेवारियों का सन्यास कर दे , कोई अपने कर्तव्य का सन्यास कर दे , नहीं ! उसको सन्यास योग नहीं कहा जाता है ! सन्यास योग और कर्मयोग दोनों ही श्रेष्ठ है क्योंकि दोनों ही जैसे एक दूसरे के पूरक हो जाते हैं ! जो मनुष्य कर्म करता हुआ किसी के साथ न द्वेष करता है और न किसी कर्मफल की इच्छा रखता है वह सदा सन्यासी जानने योग्य है !

व्यक्त्ति को बांधने वाले या मुक्त्त करने वाले उसके कर्म नहीं हैं , बल्कि उसके कर्म करने की वृत्ति है कि कौन-सी-वृत्ति से वह कर्म किया गया है !

द्वेष , वैर , लोभ , कामना आदि विकारों का त्याग ही सन्यास है ! कर्तव्य , कर्मों का त्याग करना ये कोई सन्यास नहीं है !

इसलिए कई बार हमें उदाहरण में यह जानने को मिलता है कि एक बार एक सन्यासी सब कुछ सन्यास करके अपने शिष्य के साथ एक हाथ में कमण्डल लेकर के आगे जा रहा था ! अचानक उनके मन में विचार आया कि ये शिष्य का बंधन भी क्यों चाहिय ? इसलिए उसने शिष्य को कहा कि तुम अपने मार्ग पर आगे बढ़ो और मैं अपने मार्ग पर आगे बढ़ता हूँ ! अब दोनों के बीच में कमण्डल एक ही था ! अब कमणडल में बुद्धि जाती है कि कमणडल कौन लेगा ?
उस पर उन दोनों की बहस आरम्भ हो गयी कि कमण्डल का क्या करें ? आखिर उन दोनों ने फैसला किया कि कमण्डल को भी तोड़कर आधा-आधा ले लें !

इसका भावार्थ है कि आप सब कुछ त्याग करते हो , लेकिन उसकी वृत्ति के अन्दर सन्यास नहीं है , तो कोई फायदा नहीं है !
इंसान कर्म कोई भी करे लेकिन उस कर्म के अन्दर वैर, द्वेष, लोभ, कामना आदि विकार नहीं होना चाहिए ! इन वृत्तियों से जिसकी बुद्धि परे हो जाती है, वही सच्चा सन्यासी है, भले ही वह गृहस्थ में रहता हो, तो भी वह सन्यासी जानने योग्य है !
Truegyantree Karmayogi

कर्म योग

भगवान ने फिर आगे बताया कि

कर्मयोग के बिना सन्यास की प्राप्ति नहीं हो सकती है ! जो योगयुक्त्त और पवित्र आत्मा है , जो सर्व प्राणियों में आत्मा को देखता है , आत्मिक दृष्टि का अभ्यास करता है , वह इस शरीर को नहीं देखता है कि ये फलाना है , ये फलानी है !

लेकिन हर एक में विराजमान आत्मा को देखता है ! आत्मा को देखते हुए उसका मन वश में होता है ! जब शरीर को देखता है कि ये काला है , ये गोरा है , ये ऊंचा है , ये नीचा है तो उसके अन्दर अनेक प्रकार के भाव आने लगते हैं तो मन वश में नहीं रहता है !

मन को वश करने की सहज विधि बतायी है कि तुम सबमें आत्मा को देखो ! ऐसे वह जितेन्द्रिय, सर्व कर्मेन्द्रिया द्वारा कर्म करते हुए भी स्वयं को उससे भिन्न समझता है शरीर मात्र एक साधन है !

जो व्यक्त्ति अनासक्त्त भाव से अपना कर्म करता है और उसका सभी फल परमात्मा के प्रति समर्पित कर देता है , वह कर्म करते हुए भी कर्म बन्धन से अलिप्त रहता है !

जिस प्रकार कमल जल से अलिप्त रहता है वैसे कर्मयोगी का हर कर्म आत्मशुद्धि के लिए होता है ! वह पुरूष ( आत्मा ) नौ द्वार वाले इस देह में रहते हुए मन , बुद्धि संस्कार पर अपना नियंत्रण करते हुए परम शान्ति एवं परम सुख का अनुभव करता है ! जैसे कमल जल में रहते अलिप्त ( detachment ) रहता है , ऐसे संसार में रहते हुए भी वह अपने जीवन को श्रेष्ठ बनाता है 

राजा जनक ने एक बार सवाल किया कि 
जीवन-मुक्त्ति स्थिति किसको कहते हैं ? मुझे वो ज्ञान कोई एक सेकण्ड में दें ! कई विद्वान आये , राजा जनक को ज्ञान सुनाने के लिए लेकिन जैसे ही वे ज्ञान देना आरम्भ करते तो राजा जनक कहते कि मुझे ज्ञान नहीं चाहिए ! मुझे प्रैक्टिकल में कोई एक सेकण्ड में बतायें कि जीवन-मुक्त्त स्थिति किसको कहते हैं ! आखिर जब सभा शान्त हो गई , तो राजा जनक भी निराश हो गए और कहा कि मेरे विद्वानों में कोई भी ऐसा नहीं जो जीवन-मुक्त्त स्थिति को बता सके ! 

तभी वहाँ अष्टावक्र प्रवेश करते हैं ! अष्टावक्र जैसे ही आगे बढ़ते हैं ज्ञान सुनाने के लिए , तो सारी सभा उस पर हसनें लगती है ! उस समय अष्टावक्र ने राजा से कहा कि हे राजन ! मैं तो समझता कि तुम्हारे दरबार में विद्वानों की सभा है, लेकिन आज मुझे पता चला कि ये तो चमारों की सभा है ! सारे विद्वान एकदम गुस्से में आ गए कि हमें चमार कहा, अष्टावक्र ने कहा कि ये विद्वान मुझ आत्मा को नहीं देखते हैं कि ये आत्मा कितनी ऊंच हो सकती है ? वो मेरी चमड़ी को देख रहे हैं इसलिए हंस रहे हैं !

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यही बात यहाँ पर कही गई है कि हे अर्जुन !

सबमें आत्मभाव को देखो , आत्मरूप को देखो , उसकी चमड़ी को नहीं देखो ! क्योंकि चमड़ी को देखने से अनेक भाव उत्पन्न होंगे ! अष्टावक्र ने राजा से कहा कि आपको एक सेकण्ड में ज्ञान चाहिए ना ? मैं आपको अभी ज्ञान नहीं दूंगा , समय आने पर ज्ञान दूंगा ! 

सभा विसर्जित हुई राजा ने अपना घोड़ा मंगवाया कि थोड़ा बाहर सैर कर के आते हैं ! जैसे ही घोड़ा आया और राजा ने एक पैर घोड़े पर रखा और एक पैर उनका जमीन पर था ! 

दूर से अष्टावक्र ने राजा को आवाज़ दी कि हे राजन ! इस वक्त्त तुम कहाँ हो ? राजा सोच में पड़ गया कि ज़मीन पर होते हुए ज़मीन पर नहीं हूँ , घोड़े पर होते हुए भी घोड़े पर नहीं हूँ ! 

अष्टावक्र कहते हैैं कि यही तो जीवन-मुक्त्ति का रहस्य है कि संसार में रहते हुए संसार से अलिप्त ( detachment) रहो , ये सही मार्ग है जीवन-मुक्त्ति की अनुभूति करने का ! मुक्त्ति से भी श्रेष्ठ , जीवन-मुक्त्ति को माना गया है !