E.53 परम पुरूष

गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य (तेरहवाँ, चौधवाँ एवं पंद्रहवाँ अध्याय )

“धर्मक्षेत्र और कुरूक्षेत्र का भाव”

The Great Geeta Episode No• 053

परम पुरूष

अर्जुन फिर प्रशन पूछता है कि किन गुणों से सम्पन्न साधक उस परम पद को प्राप्त होते हैं ?

भगवान ने उसकी विशेषताएं बताई कि जिनका मान और मोह निवृत्त हो गया है , न उनको मान-शान चाहिए और न उसको किसी वस्तु या व्यक्त्ति का मोह है ! जिन्होंने संगदोष को जीत लिया है , जो आत्म-स्थिति में स्थित हैं ! जिनकी कामनाएं निवृत्त हो चुकी हैं और जो सुख-दुख नामक द्वंदों से मुक्त्त हो गये हैं !

ऐसे ज्ञानी जन उस अविनाशी पद को प्राप्त होते हैं ! यह उनके लक्षण हैं ! इसलिए कई बार कई लोग पूछते हैं कि संसार के अन्दर ऐसा कौन इंसान होगा ? ईश्वर को मालूम है कौन वह इंसान है, जो इन लक्षणों के आधार से युक्त्त है !

Soul World - Paramdham

भगवान अपने परमधाम का वर्णन पुनः बताते हैं कि मेरा वो परमधाम, जिसे न सूर्य, न चन्द्र, न अग्नि प्रकाशित कर सकती है ! वहां दिव्य प्रकाश अपने आपमें विद्यमान है ! वहाँ पर वो उल्टा वृक्ष है , आत्माओं का ! हर आत्मा वहाँ शाश्वत् स्वरूप में निवास करती है ! तो उल्टा वृक्ष वहाँ है ! फिर समयानुसार वो आत्मायें नीचे आती जाती है ! वह वृक्ष संसार में फैलता है ! ये तीनों संस्कार के आधार पर , आत्मायें जन्म लेती है ! सर्व आत्माएं मेरी संतान हैं !

शरीर त्याग करते समय जीवात्मा मन, बुद्धि और पांचों ज्ञानेन्द्रिय के कार्य- कलापों को संस्कार रूप में ले जाती हैं और नया शरीर धारण करती हैं !

जिसके संस्कार सात्त्विक हैं वह आत्मा सतोप्रधान स्तर पर पुहँचकर सतोप्रकृति वाला शरीर धारण करती है ! इसलिए जीवन के अन्दर कर्म करते समय संस्कार विशेष हैं ! जिस प्रकार का संस्कार दिया जाता है उसीके आधार से या ज्ञान से हम उस संस्कार को अपने अन्दर विकसित करते हैं ! जितना जो सात्त्विक स्थिति तक पुहंचता है, उतना वह सतोप्रधान प्रकृति वाले शरीर को धारण करता है !

अपने आप वह आत्मा उस शरीर की ओर आकर्षित हो जाती है ! संस्कार राजसी हैं , तो वह आत्मा रजोप्रधान स्तर पर पहुंचकर , रजो प्रकृति वाला शरीर धारण करती है !

जिसके संस्कार तामसिक हैं वह आत्मा तमोप्रधान स्तर पर पहुंचकर तमो प्रकृति वाला शरीर धारण करती है ! यह रहस्य केवल ज्ञान रूपी नेत्र वाले योगी ही जानते हैं !

जिनके पास ज्ञान के दिव्य चक्षु हैं ! वह नेत्र वाले योगी ही जानते हैं और देख सकते हैं , अर्थात् अंतर्चक्षु से उसको देख सकते हैं ! पुनः परमात्मा ने अपनी अभिव्यक्त्ति का वर्णन किया कि इस कल्पवृक्ष में

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मैं सूर्य के समान प्रकाश स्वरूप हूँ , साथ ही चंद्रमा के समान शीतल प्रकाश स्वरूप हूँ और अग्नि की तरह तेजोमय हूँ !

इस पृथ्वी पर पाँच भूतों के शरीर का आधार लेकर मैं सर्व को ज्ञान रूपी सोमरस पिलाते हुए हजम करने की शक्त्ति प्रदान करता हूँ ! ज्ञान को हजम करने की शक्त्ति, सोमरस ( सोम माना अमृत ), का वह अमृतपान कराते हैं ! इससे आत्मा परिपक्व अवस्था को प्राप्त कर तृप्त हो जाती है !

मैं ही सर्व आत्माओं को अपने वास्तविक स्वरूप की स्मृति दिलाता हूँ और उन्हें ज्ञानयुक्त्त स्थिति में स्थित करता हूँ ! इस नवीन ज्ञानार्जन करने की प्रक्रिया में पूर्व की मिथ्यायें, धारणायें, दोषों की विस्मृति हो जाती है ! जैसे-जैसे ज्ञानार्जन करने की प्रक्रिया आरम्भ होती है आत्मा की वैसे-वैसे मिथ्या धारणायें व दोष विस्मृत होते जाते हैं ! इस प्रकार मुझसे ही स्मृति को प्राप्त कर सकते हैं , ज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं और इससे जो अज्ञानता है उसकी विस्मृति हो जाती है !

परमात्मा में ही वो समर्थी है ! जो स्मृति देते हैं ये सारे कल्पवृक्ष की , संसार चक्र की , क्षेत्रक , क्षेत्रज्ञ की और स्वयं की ! इन सब बातों की स्मृति दिलाते हुए ज्ञान देते हैं, और अज्ञान मिथ्या धारणाओं की विस्मृति हो जाती है ! अर्थात् जब ज्ञान का उदय होता है तो अज्ञानता का अंधकार समाप्त हो जाता है !

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शरीर क्षर ( विनाशी ) और आत्मा अक्षर ( अविनाशी )

भगवान कहते हैं, इस लोक में शरीर क्षर ( विनाशी ) और आत्मा अक्षर ( अविनाशी ) है ! ये नहीं कि एक बड़ी आत्मा थी ! उसके टुकड़े हो गये और सभी संसार में आ गये और फिर अन्त में जाकर के वो टुकड़े एक हो जायेगे ! आत्मा अजर , अमर , अविनाशी है , तो उसका शाश्वत् स्वरूप सदाकाल के लिए है ही है !

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वो चैतन्य शक्त्ति है ! जब एनर्जी के लिए दुनिया में भी कहा जाता है कि ऊर्जा का न निर्माण किया जा सकता है और न ही नष्ट किया जा सकता है ! आत्मा जो स्पिरिचुअल एनर्जी है उसका भी ना क्रियेशन ना डिस्ट्रक्शन किया जा सकता है ! इसलिए वो समाने वाली बात भी नहीं है !

हर आत्मा का अपना-अपना अस्तित्व है ! इस संसार के अन्दर सदाकाल के लिए है ! जब वह इस संसार से जाती है , परमधाम में , व्यक्त्त से अव्यक्त्त होती है , तो भी वहाँ पर भी उनका एक शाश्वत् स्वरूप रहता ही है ! हर आत्मा भिन्न है इसलिए एक आत्मा न मिले दूसरे से !

परम पुरूष:

इन दोनों के अतिरिक्त्त परम पुरूष परमात्मा है जो अविनाशी एवं त्रिलोकीनाथ है ! जो आत्मा संशय रहित होकर पुरूषोत्तम परमात्मा को जानती है वह परमात्मा की स्नेह भरी याद में मग्न रहती है ! जो इस अति रहस्ययुक्त्त गोपनीय ज्ञान को समझ लेता है वह मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है अर्थात् सन्तुष्ट हो जाता है ! जितना हम ज्ञान की धारणा करते जाते हैं, उतना हमारे मन के प्रशनों का समाधान होता जाता है !

उतनी ही मन सन्तुष्ट और प्रसन्न हो जाता है ! सन्तुष्टता का ये भाव नहीं है कि बस हमें कुछ जानने की ज़रूरत नहीं ये सन्तुष्टता की स्थिति नहीं है ! लेकिन सन्तुष्टता की स्थिति अर्थात् जैसे व्यक्त्ति पैदल चल रहा है अपनी मंज़िल पर पंहुचने के लिए , बहुत प्यास लगी है उसको, उसने पानी पीया ! जैसे ही पानी मिला वह तृप्त हो गया ! लेकिन तृप्त होकर वहाँ वह बैठ नहीं जाता है ! अपनी मंज़िल का उसको सम्पूर्ण ज्ञान है ! पुनः अग्रसर हो जाता है, अपनी मंज़िल की ओर आगे बढ़ता है !

ठीक इसी तरह पुरूषार्थी जब पुरूषार्थ करता है तो पुरूषार्थ करने के साथ ही , जब-जब बीच में संशय उत्पन्न करने वाले प्रशन उठते हैं और जब उसका समाधान होता है तो आत्मा, सन्तुष्टता, प्रसन्नता की स्थिति का अनुभव करती है ! उसके साथ ही आगे जीवन में पुरूषार्थ करने की प्रेरणा उसको, उसी में से प्राप्त होती है तथा पुरूषार्थ में वे अग्रसर हो जाता है ! आगे बढ़ जाता है ! इसको कहते हैं आत्म-तृप्ति की अवस्था ! पुरूषार्थी कभी भी आलस्य में नहीं आता है ! पुरूषार्थी नित्य प्रगति की ओर आगे बढ़ता है ! इस तरह से जीवन में आगे बढ़ने की विधि क्या है , वह परमात्मा ने इस अध्याय में हमें स्पष्ट की है !

आत्म-साक्षात्कार अर्थात् आत्मानुभूति और परमात्म अनुभूति करने के लिए नीचे दी गई विधि द्वारा जैसे आप अपने मन के अन्दर उन विचारों का निर्माण करते जायेंगे ! इतना ही नहीं लेकिन उन विचारों के निर्माण के साथ-साथ उन भावनाओं को भी अन्दर उत्पन्न करते चलें ! जितना भावनाओं को उत्पन्न करेंगे , तो महसूस करना आसान हो जायेगा , सहज , स्वाभाविक हो जायेगा ! तो इसलिए चलतें हैं , हम अब ध्यान की ओर…और जैसे परमात्मा ने अर्जुन को कहा कि अनन्य भाव से तुम अपने मन को मेरे में लगाओ ! अपने मन को बाह्य सभी बातों से समेट लें !

अपने मन के अन्दर शुभ संक्लपों का निर्माण करें !

अंतर्चक्षु से….स्वयं को अपने दिव्य स्वरूप में…. भृक्रुटी के अकालतख़्त पर….विराजमान देखते हैं…. स्वयं को…आत्म स्थिति में… स्थित कर रहे हैं… ये शरीर… मेरा साधन है… क्षेत्र है…. कर्म करने का..मैं आत्मा क्षेत्रक्ष हूँ ..धीरे-धीरे… अपने मन और बुद्धि को…इस देह के भान से उपराम…करते जाते हैं.. और स्वयं को…ले चलते हैं.. यात्रा पर…परमधाम की ओर.. शान्तिधाम की ओर… जहाँ सूर्य , चंद्र , तारागणों का प्रकाश पुहंच नहीं सकता.. पंच महातत्व की दुनिया से दूर…दिव्य लोक में… ब्रह्यमहातत्व…परमात्मा के सानिध्य में… इस लोक में.. मैं आत्मा स्वयं को मुक्त्त अवस्था में महसूस कर रही हूँ.. कोई बन्धन , कोई बोझ नहीं है.. मैं स्वयं को…एकदम हल्के स्वरूप में.. देख रही हूँ… चारों ओर.. पवित्रता की… दिव्य आभा फैली हुई है…मैं आत्मा… अपने असली स्वरूप में.. शुद्ध सतोप्रधान… ये मेरा पवित्र स्वरूप है…. असली स्वरूप में… सत्य गुण… ये मेरी वास्तविकता है… यही मेरे असली संस्कार हैं… इस संस्कार में स्थित.. मैं स्वयं को..इतना न्यारे और प्यारे..स्वरूप में… अलौकिक स्वरूप में देख रही हूँ… धीरे-धीरे मैं स्वयं को पिता…परमात्मा के सानिध्य में देख रही हूँ… जैसे मैं आत्मा दिव्य प्रकाशपुंज हूँ.. वैसे मेरा पिता परमात्मा भी.. सूर्य के समान प्रकाशमान हैं… परन्तु चंद्रमा के समान..शीतल स्वरूप हैं.. अग्नि के समान…तेजोमय हैं…सर्व शक्त्तिमान …सर्वोच्च.. त्रिलोकीनाथ हैं… मनुष्य संसार के…सृष्टि रूपी वृक्ष के…बीज रूप हैं… निराकार हैं… सूक्ष्म ते सूक्ष्म.. अति सूक्ष्म…….. सर्वशक्त्तिमान हैं.. परमात्मा के सानिध्य में… परमात्मा की अनंत किरणें…मेरे ऊपर ..प्रवाहित हो रही हैं… असीम स्नेह का सागर है… ज्ञान का सागर है… मुझ आत्मा को भी… ज्ञान के प्रकाश से..प्रकाशित कर दिया…दिव्य बुद्धि का वरदान दे रहे हैं.. जिससे मैं…..गुहाृ गोपनीय…ज्ञान को समझने की..क्षमता धारण कर रही हूँ… परमात्मा पिता से..निर्मल ..शक्त्तियों के प्रवाह से…मुझ आत्मा के…जन्म-जन्मांतर के विकर्म.. दग्ध हो गये…और मैं भी.. निर्मल पवित्र बनती जा रही हूँ… परमात्मा के असीम प्यार को…प्राप्त करने की पात्रता…स्वयं में धारण कर रही हूँ.. जिससे अनंत किरणों की बाहों में मुझे समाते जा रहे हैं…परमात्म मिलन का अनुभव करते हुए…मैं धीरे-धीरे……….. अपने मन और. बुद्धि को…वापिस…इस पंचतत्व की दुनिया की ओर… शरीर में…. . भृक्रुटी के अकाल तख्त पर विराजमान होती हूँ… और अब सतो गुणों को…नित्य… हर कर्म में प्रवाहित करना है … ओम् शान्ति ..शान्ति ……शान्ति … शान्ति …. 

B K Swarna
B K Swarnahttps://hapur.bk.ooo/
Sister B K Swarna is a Rajyoga Meditation Teacher, an orator. At the age of 15 she began her life's as a path of spirituality. In 1997 She fully dedicated her life in Brahmakumaris for spiritual service for humanity. Especially services for women empowering, stress & self management, development of Inner Values.

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