गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य (नवाँ, दसवाँ, गयारहवाँ एंव बारहवाँ अध्याय)
“समर्पण भाव”
The Great Geeta Episode No• 046
मन्मनाभव और मध्याजीभव
भगवान को दोस्त तो बनाकर देखो कितना सुन्दर अनुभव होता है ! भक्त्ति में भी जिन्होंने ये सम्बन्ध ईश्वर के साथ जोड़ा है उन्होंने उस सम्बन्ध का सुख अनुभव किया है ! चाहे वो सुदामा था , चाहे वो अर्जुन ! अर्जुन ने उसको सारथी रूप में देखा तो वो सारथी बन गया और हर वक्त्त उसको गाइड करता रहा अर्थात् मित्र भाव से वह उसके व्यवहार में आया !
भले ही उसने शिव परमात्मा को साधारण रूप में देखा अर्थात् श्रीकृष्ण के रूप में देखा लेकिन मानता तो यही था कि यही मेरा दोस्त है ! भगवान कहते है कि जो अत्यंत दुराचारी भी है , पर निश्चय बुद्धि होकर अनन्य भाव से मेरी शरण ग्रहण करता है सेवा करता है वो साधू बनने योग्य है ! वो भले ही अन्दर में दुराचारी ही क्यों न हो ! वैसे ये विरोधाभास है !
दुराचारी के मन में भगवान के प्रति श्रद्धा नहीं होती है ! इसलिए भगवान ने कहा है कि वह इतना दयालू है कि अगर कोई दुराचारी होगा फिर भी अगर निश्चय बुद्धि हो करके अनन्य भाव से मेरी शरण ग्रहण करता है , सेवा करता है तो साधू मानने योग्य है ! दुराचारी के सामने भगवान का नाम लो तो क्या कहेगा- अरे कोई भगवान तो है ही नहीं ! उसके लिए तो बस , मरो या मारो ये है ! भगवान जैसी चीज़ उसकी श्रद्धा में भी नहीं होती है ! लेकिन फिर भी भगवान उनके प्रति भी दयालू है ! शास्त्रों में ऐसी कई कहानियां आती हैं !
जब एक व्यक्त्ति भगवान को बिल्कुल नहीं मानता था ! उसकी पत्नी ने उसके बेटे का नाम ही नारायण रख दिया ! अब उसको बुलाने के लिए तो नारायण बोलना ही पड़ेगा ! इसी तरह से वो नारायण बोलता था ! फिर भी जहाँ तक वो टाल सकता था , टाला करता था ! अन्तिम समय में जब उसको प्राण छोड़ने का समय आया और यमदूत उसको लेने आते हैं और उसको यमदूत दिखाई देते हैं , तब वो अपने बेटे का नाम पुकारता है , अरे नारायण मुझे बचाओ ! ये मुझे लेने आये हैं ! भगवान दोड़ा चला आता है कि तूने नाम तो ले लिया ना !
इसलिए शास्त्रों में ऐसी कथायें हैं जो हमें स्मृति दिलाती हैं कि भले कोई व्यक्त्ति कितना भी दुराचारी क्यों न हो लेकिन भगवान फिर भी कितना दयालू होता है ! वो उसकी शरण ग्रहण नहीं करना चाहता है लेकिन फिर भी समय उसको कभी-कभी मजबूर कर देता है ! वो साधू मानने योग्य है और वह परम शान्ति को प्राप्त होता है ! वो कभी नष्ट नहीं होता ! अगर दुराचारी को भी भगवान सदगति दे सकता है फिर धर्मात्मा , ब्राह्यण , योगी , राजश्रषियों का तो कहना ही क्या है !
इसलिए हे अर्जुन !
” मन्मनाभव मध्याजीभव ” !
मन्मनाभव अर्थात् तुम मन को मेरे में लगायेगा तो मध्याजी भव अर्थात् नर से सो नारायण बनना सहज हो जायेगा !
मन्मनाभव अर्थात् तुम मन को मेरे में लगाओ ! अनन्य भाव से मेरे को याद करो मेरे में मन लगाओ
और मध्याजीभव माना ब्रह्या , विष्णु , महेश के मध्य में कौन है ? मध्य में विष्णु है ! तू मन को मेरे में लगायेगा तो मध्याजी भव अर्थात् नर से सो नारायण बनना सहज हो जायेगा ! इसलिए गीता में भगवान ने यह बात स्पष्ट कर दी कि हे अर्जुन !
” मन्मनाभव मध्याजीभव ” तुम मुझे याद करो ! भगवान को याद करने में प्राप्ति क्या है ? जैसे जो जिसके पास अध्ययन अर्थात् पढ़ता है वो टीचर भी उसकी गांरटी लेता है कि मैं तुझे इतने मार्क्स से पास करा सकता हूँ रिश्वत देकर के पास कराने वाली बात नहीं है ! उसकी मेहनत और उसको ऐसी विधि बताते हैं कि जिस विधि के आधार से उसको हर बार जैसा करना होता है वैसा स्पष्ट हो जाता है ! वह उतने मार्क्स को प्राप्त कर सकता है !
परमात्मा
ये गांरटी है ! तो परमात्मा जो सर्वशक्त्तिमान है उसकी शक्त्ति का अंदाजा लगाओ कि कोई उसको अनन्य भाव से याद करेगा तो वह किस गति को प्राप्त हो सकता है ? ‘ नर से श्रीनारायण ‘ ये गांरटी ईश्वर की है कि मैं तुझे नारायण स्वरूप में उस श्रेष्ठ गति में जाने के योग्य पात्र बना सकता हूँ !
इस तरह से भगवान अपने प्रिय अर्जुन को अपनी उत्पत्ति का रहस्ययुक्त्त श्रेष्ठ ज्ञान देते हुए कहते हैं कि
” न देवता और न ही महर्षिगण उनकी उत्पत्ति का रहस्य जानते हैं ! ”
संसार में जब देवातायें नहीं जानते , महर्षिगण नहीं जानते तो मनुष्य क्या जानेगा ! ये तो सोचने की बात है ! इसलिए भगवान ने बहुत स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि मेरी उत्पत्ति का रहस्य युक्त्त श्रेष्ट ज्ञान न देवता जानते हैं और न महर्षिगण जानते हैं !
मोह रहित , पाप रहित , ज्ञान-ध्यान से युक्त्त मनुष्य ही मुझे अजन्मा , अनादि के यथार्थ रूप को जान लेते हैं ! पुनः भगवान ने अपने अव्यक्त्त स्वरूप के विषय में स्पष्ट किया कि
मैं “अजन्मा हूँ , अनादि हूँ ”
और कहा कि मनुष्यात्मा में जो गुण विद्यमान हैं , वह मेरे द्वारा दिये गए हैं ! हर एक अन्दर कोई न कोई ऐसे गुण ज़रूर हैं ! इसलिए दुनिया में भी ये कहावत है कि ‘ किसी व्यक्त्ति के अन्दर निन्यानवें अवगुण हों लेकिन एक गुण तो होगा ही ‘ ! वो एक-दो गुण जितने भी हैं वो ईश्वर द्वारा प्राप्त हैं ! वो ईश्वर की सबसे बड़ी गिफ्ट होती है !
मनुष्य जीवन को अर्थपूर्ण बनाने के लिए ! जिसके लिए कहा जाता है कि भगवान ने कोई न कोई विशेषता या गुण अवश्य दिया होगा ! तो भगवान यही बात स्पष्ट करते हैं कि मनुष्यात्मा में जो गुण विद्यमान हैं , वह मेरे द्वारा दिये गये हैं ! दैवी संस्कार मैंने संक्लप से उन्हें प्रदान किया है !
भगवान कैसे देता है ? वह तो अजन्मा है , अव्यक्त्त है तो देगा कैसे ?
वो कोई शारीरिक चीज़ नहीं है स्थूल चीज़ भौतिक चीज़ नहीं है जो उठाकर दे दे !
भगवान संक्लपों के द्वारा , उसके अन्दर वो दैवी शक्ति उसको गिफ्ट के रूप में देते हैं ! इसलिए ये सब संक्लप की रचना है ! जो पुरूष ज्ञान के आधार से मेरी इस विभूति और योग को जानता है , वह निश्चयात्मक योग-युक्त्त हो जाता है ! उसमें कुछ भी संशय नहीं रहता ! उसमें क्षण भर भी संशय का संक्लप नहीं आता है !
भगवान है या नहीं है ? कैसा है , क्या है ?
जिसने उसको जान लिया , समझ लिया वह निश्चयात्मक हो जाता है ! ज्ञान के आधार से जानने की बात पुनः दोहराई है कि जिनका मन निरन्तर मुझमें रमा हुआ है , जिनका जीवन मेरी सेवा में समर्पित है, जो दूसरों को ज्ञान देते हैं , आपस में भी ज्ञान चर्चा करते हैं , वह प्रसन्नता एवं दिव्य आनन्द का अनुभव करते हैं ! आपस में भी जब हम एक दूसरे से बात करें , तो शुभ चिंतन ही करें ! जैसे कि कहावत है
" परचिंतन पतन की जड़ है, आत्मचिंतन उन्नति की सीढ़ी है ! "
जितना हो सके हम एक-दूसरे के प्रति भी उन्नति की बातें करते रहें ! इसलिए भगवान ने कहा कि आपस में भी ज्ञान-चर्चा करते हैं वो प्रसन्नता एवं दिव्य आनन्द का अनुभव करते हैं ! उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ ,कैसे वो मुझ तक आ सकते हैं ! ये ज्ञान परमात्मा ही देता है ! कोई मनुष्य नहीं दे सकता है ! भगवान को जानकर के पहचानना ये किसी के वश की बात नहीं है ! जब तक वो खुद आकर अपना परिचय न दे तब तक कैसे उसको जानेगें ?
आज आप कोई गाँव में चले जाओ या कोई शहर में चले जाओ ! लोग अन्दाज़ा लगायेंगे कि इस व्यक्त्ति की बातों से ऐसा लगता है कि यहाँ से आया होगा ! उसकी शकल से ऐसा लगता है कि यहाँ से आया होगा ! इसके चलने- रहने के ढ़ग से ऐसा लगता है कि ये ऐसा होगा ! अन्दाज़ा लगा सकते हैं ! लेकिन जब तक आप खुद स्वयं होकर के अपना परिचय न दो तब तक कोई कैसे समझ पायेगा ? जब आप अपना सम्पूर्ण परिचय देते हैं तब वो आपको समझ सकते हैं !
ठीक इसी तरह हमने भी आज तक ईश्वर के बारे में अपनी बुद्धि से अन्दाज लगाया ! ईश्वर ऐसा हो सकता है… ऐसा हो सकता है …..इसलिए आज इतने मत-मतांतर हो गये हैं ईश्वर के बारे में ! जब अति धर्मग्लानि का समय होता है , तब वे अवतरित होकर अपना परिचय देते हैं ! अपने बारे में जानकारी देते हैं , सम्पूर्ण ज्ञान देते हैं और तब हम उसके यथार्थ स्वरूप को जान सकते हैं पहचान सकते हैं और उसको याद कर सकते हैं !
भगवान कहते हैं- ” मैं उन पर विशेष कृपा करते हुए उनके अज्ञान अंधकार के कारण को दूर करता हूँ ” !
अज्ञान अंधकार का कारण क्या है ?
ये बुराईयां काम , क्रोध , राग , द्वेष , मोह , ये सभी कारण हैं दुःख के !
इसलिए कहा कि अज्ञान अंधकार को दूर कर , ज्ञान के प्रकाशमान दीपक द्वारा , उन्हें मैं आत्मभाव में स्थित करता हूँ ! अर्थात् आत्म स्वरूप में होने की विधि परमात्मा बतलाते हैं !
फिर अर्जुन पूछता है कि हे प्रभु !