गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य (नवाँ, दसवाँ, गयारहवाँ एंव बारहवाँ अध्याय)
“समर्पण भाव”
The Great Geeta Episode No• 044
सूक्ष्म दिव्य ज्योतिर्मय प्रकाश
अब तक भगवान ने विभिन्न तरीकों से अर्जुन को समझाना चाहा कि किस प्रकार अपने मन को वो नियंत्रित कर सकता है ! फिर भी अगर उसको कठिन लगे तो कैसे समर्पण भाव को अपनाना ज़रूरी है !
परमात्मा हम सभी के सर्व मानसिक बोझ को उठाने के लिए तैयार है ! भगवान यही चाहते हैं कि मनुष्य अपना कर्तव्य करते हुए भी , सर्व प्रकार के मानसिक बोझ को उस परमात्मा को सौंप दे !
बुद्धि को समर्पण करते हुए अपना नित्य कर्म करता चला जाये ! समर्पण भाव भी तभी आएगा जब ईश्वर का वास्तविक स्वरूप हमारे सामने स्पष्ट हो ! इसलिए जैसे अर्जुन भी साधारण स्वरूप में ईश्वर को देख रहा था तो भगवान को बार-बार अपने वास्तविक स्वरूप की तरफ ईशारा करना पड़ा कि
मेरा वास्तविक स्वरूप सूक्ष्म ते सूक्ष्म , अणु से भी सूक्ष्म दिव्य ज्योतिर्मय प्रकाश स्वरूप है ! परमात्मा का जो वास्तविक धाम है वो परमधाम है !
”निजानंद स्वरूपम शिवोहम…शिवोहम”,
”प्रकाश स्वरूपम शिवोहम…शिवोहम”,
”ज्ञान स्वरूपम शिवोहम…शिवोहम”
सर्वप्रथम भगवान यही बात स्पष्ट करते हैं कि हे अर्जुन ! इस परम गोपनीय ज्ञान को भी मैं ज्ञान सहित कहूंगा ! अर्थात् ये ज्ञान कोई अंधविशवास का ज्ञान नहीं है , लेकिन ये ज्ञान एक विज्ञान है !
जहाँ हर बात के पीछे कोई न कोई रूप से तर्क स्पष्ट किया गया है ! यह ज्ञान सभी विद्याओं का राजा है ! इसलिए इसको राजयोग कहा जाता है ! संसार में ज्ञान की अनेक शाखायें हैं , लेकिन उन सभी विद्याओं का राजा राजयोग को कहा गया है !
यह गोपनीय रहस्यों से भी अधिक गोपनीय है ! ये परम पवित्र ज्ञान है ! क्योंकि ये स्व की प्रत्यक्ष अनुभूति का बोध कराता है ! यह धर्म का भी आदर्श है ! यह स्थायी तथा प्रसन्नता पूर्वक धारण किया जाने वाला है !
ज्ञान यह प्रैक्टिकल से प्रैक्टिकल है ! जिसके लिए कोई ये नहीं कह सकता है कि ये ज्ञान धारण करना मेरे लिए मुशिकल है ! मुशिकल नहीं है लेकिन जो इस रहस्य को समझता है तो उसके लिए धारण करना आसान हो जाता है !
आगे भगवान बताते हैं कि परमात्मा की अपना कार्य करने की प्रणाली ( System ) कैसी है ! इसमें बताया कि
मैं अव्यक्त्त ( point of light ) स्वरूप हूँ , और मेरी कार्य प्रणाली अलौकिक है !
फिर से भगवान गुप्त रूप में ईशारा दे रहे हैं ! अभी तक भी वो ( अर्जुन ) अव्यक्त्त को समझ पाने की क्षमता नहीं रख पाता है ! जैसे आज की दुनिया में कई बार कई लोग यही सोचते हैं कि अव्यक्त्त को हम कैसे समझें ?
तो इसलिए भगवान अपने कार्य के आधार पर भी अपने स्वरूप को स्पष्ट करते हैं कि मेरी कार्य प्रणाली अलौकिक है !
जितने भी पदार्थ इस दुनिया में रचे गए हैं वो मेरे भीतर नहीं हैं !
क्योंकि कुछ लोग यहाँ तक कई धर्मों में भी इस ब्रह्याण्ड को ही भगवान कह दिया हैं ! मैं चैतन्य प्राणियों का पालनहार जरूर हूँ ! परमात्मा जो हर आत्मा की पालना करते हैं ! ये कर्म उसको बांधते नहीं हैं ,क्योंकि भगवान की कर्मों में आसाक्त्ति नहीं है !
कर्म-बन्धन तब बनता है जब उसमें आसाक्त्ति रहती है ! लेकिन जब कोई भी कार्य निमित्त होकर हम करते हैं अर्थात् परमात्मा का समझते हुए हम कर्म करते हैं तो वो कर्म हमें बांधते नहीं हैं ! क्योंकि उसमें हमारी आसाक्त्ति नहीं होती है ! तब मुझे एक सुखद अनुभूति होती है कि
मैं तटस्थ निरपेक्ष अर्थात् न्यारा और प्यारा हूँ !
ये संसार , ये ब्रह्याण्ड जो है भगवान कहते हैं कि इस विराट प्रस्तुतिकरण ( Presentation ) का मैं हिस्सा नहीं हूँ !
मैं तो मालिक है , इसलिए मैं इसका हिस्सा नहीं है ! मैं स्वयं ही सारी सृष्टि का स्रोत हूँ ! मैं मेरी शक्त्तियों के सकाश से चराचर जगत को रचता हूँ !
ये संसार चक्र नित्य धूमता रहता है ! काल चक्र किस प्रकार चलता है , भगवान ने यहाँ कई जो विरोधाभासी बातें हैं , उसको स्पष्ट किया है कि विस्तृत प्रस्तुतिकरण का मैं हिस्सा नहीं हूँ ! मैं सारी सृष्टि की रचना ( Creation ) का स्रोत हूँ !
अवश्य परमात्मा वो शक्त्ति है जिसने सब कुछ रचा है ! परमात्मा का सकाश , सकाश अर्थात् शक्त्ति इस चराचर जगत को रचती है !
इस प्रकार ये सृष्टि का चक्र नित्य चलता रहता है ! इसको कहा गया है कालचक्र, समय का चक्र, सृष्टि चक्र !
सृष्टि चक्र
🌍चक्र माना जिसका आदि और अन्त न हो ! जो नित्य चलता रहता है ! दुनिया में भी जितने चक्र बने हुए हैं वो चक्र भी नित्य चलते रहते हैं ! दिन और रात का चक्र, नित्य चलता रहता है ! रितुऔं का चक्र , नित्य चलता रहता है !
मनुष्य पुनर्जन्म का चक्र , नित्य चलता रहता है !
प्राकृतिक साइकल को भी अगर देखा जाए तो पानी वाष्पित होकर बादल बनते हैं , वो बादल जाकर के बरसते हैं , वो पानी फिर नदियों के द्वारा समुन्द्र में मिल जाता है , ये चक्र भी नित्य चलता रहता है ! कोई भी चक्र की आदि और अन्त नहीं है दिन और रात के चक्र में कौन-सी घड़ी को आदि कहेंगे , क्या रात को बारह बजे यह चक्र आरम्भ हुआ , सुबह चार बजे हुआ , छः बजे हुआ , दस बजे हुआ , कब हुआ ? ये चक्र है !
चक्र माना जिसकी आदि और अन्त नहीं है ! जो नित्य चलता रहता है ! हाँ , मनुष्य ने अपनी व्यवस्था को बनाये रखने के लिए रात को बारह बजे के बाद दूसरा दिन कह दिया , लेकिन ज़रूरी थोड़े ही है कि रात को बारह बजे ही ये चक्र शुरू हुआ था !
🌓 इसी तरह रितुओं का चक्र कब शुरू हुआ पता नहीं है ! हाँ , मनुष्य ने अपनी व्यवस्था को बनाने के लिए पहली जनवरी , नया साल कह दिया ! किन्तु ये ज़रूरी थोड़े ही है कि पहली जनवरी को ही ये चक्र आरम्भ हुआ ! इसलिए कौन-सी घड़ी को पहली घड़ी कहेंगे ये नहीं कह सकते क्योंकि ये चक्र है !
ऐसे ही ये सृष्टि का चक्र भी नित्य चलता रहता है , नित्य घूमता रहता है ! लेकिन हर चक्र को चार अवस्था से जरूर गुज़रना पड़ता है !
दिन और रात के चक्र की भी चार अवस्थाएं हैं ! सुबह , दोपहर , शाम और रात्रि , रात्रि के बाद पुनः सुबह होती है !
रितुओं में भी चार अवस्था हैं- ग्रीष्म , शीतकाल , वर्षा और वसंत रितु ! फिर ग्रीष्म आ जाता !
इसी तरह इस काल चक्र की भी चार अवस्थाएं हैं- सतयुग , त्रेतायुग , द्वापरयुग और कलियुग ! कलियुग के बाद पुनः सतयुग आता है ! ये चक्र है , इसलिए यह नित्य चलना ही है और नित्य परिवर्तन , ये इस चक्र की प्रक्रिया है ! परिवर्तन कुदरत का नियम है ! परिवर्तन होता आया है और होता ही रहेगा !
आगे भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन ! कल्प के अन्त में , कलियुग का जब अन्त हो जाता है , तब मेरी प्रकृति अर्थात् मेरे समान स्वभाव को प्राप्त होते हैं !
अर्थात् आत्मा पुनः अपने तमोगुणी से सतोगुणी स्वरूप में आ जाती है ! कल्प के आदि में मैं उनको बार-बार विशेष रूप से सृजन करता हूँ !
आत्मा तो सदा शाश्वत ( Immortal ) अर्थात् अमर है ! आत्मा न मरती है न जन्म लेती है मरता तो केवल पाँच तत्व का बना शरीर ही है तो फिर यह सृजन कैसे होता है ? तो आत्मा शाश्वत है ! सृजन अर्थात् जो अकृति या शरीर बिना अचेत है! आत्मा परमधाम में अपने निज स्वरूप में , प्रकाश पुंज में है , उन्हें जागृत करता हूँ !
जागृत करके पुनः इस संसार में , प्रकृति का आधार लेने के लिए प्रेरित करता हूँ ! तो इस अर्थ में उसके ( आत्मा ) पार्ट को जागृत करना , ये है कि भगवान आकर उसको बार-बार जगाता है अर्थात् सृजन करता है !
फिर भगवान बताते हैं कि
मैं कल्प के लिए प्रेरित करता हूँ ! कल्प के लिए प्रेरित करना अर्थात् सतयुग , त्रेतायुग , द्वापरयुग और कलियुग में पुनः पार्ट बजाने के लिए प्रेरित करता हूँ !
कल्प का भाव है-
उत्थान की ओर परिवर्तन अर्थात् आत्मा दैवी संस्कारों में प्रवेश पाती है ! यही से कल्प का आरम्भ होता है ! वैसे ही ये चक्र है ! चक्र कब शुरू होगा , कब पूरा होगा ये नहीं कह सकते हैं , जैसे दिन और रात का चक्र होता है ! वैसे इस चक्र की भी आदि अन्त का पता नहीं है !
दिन-रात के चक्र का पहला प्रहर सुबह को माना जाता है ! सुबह के समय में जब मनुष्यात्मा भी जागृत होकर के दिन भर के कर्म के लिए अपने आप को प्रेरित करती है और रात को सारा कर्म समेटकर के वो सो जाती है !
👉 ठीक इस प्रकार , आत्मायें भी कल्प के अन्त में अर्थात् , कलियुग जब पूरा होता है , तो उस समय परमधाम जाती हैं ! आत्मा , परमधाम जैसे स्वरूप अर्थात् प्रकृति को प्राप्त करती है !
अर्थात् उस स्वरूप में जाकर कुछ क्षण के लिए परमधाम में विश्राम करती है ! फिर कल्प की सुबह होती है ! अर्थात् सतयुग का प्रारंभ होता है ! उस समय पुनः वह दैवी संस्कारों में प्रवेश पाती है ! प्रवेश पाकर के जैसे नये सिरे से अपना पार्ट बजाने के लिए तैयार हो जाती है !