गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य (सातवाँ और आठवाँ अध्याय)
“आत्म-स्वरूप स्थिति”
The Great Geeta Episode No• 038
पांडवों के बचपन की कहानी
इसलिए भगवान अर्जुन को भी सावधान करते हैं ! मन अपनी चंचलता तथा अस्थिरता के कारण जहाँ कहीं भी विचरण करता है , उसे वहाँ से खीचकर अपने वश में करो और परमात्मा में लगाओ ! इस प्रकार निरन्तर योगाभ्यास की ज़रूरत है ! योगाभ्यास में रहकर आत्म संयमी योगी समस्त पापों से मुक्त्त हो जाता है ! अभ्यास तो करना ही पड़ेगा ! अभ्यास के बिना कुछ भी हासिल नहीं होता है !
पांडवों के बचपन की बात है !
अर्जुन और भीम बाजू-बाजू में सोये हुए थे !
आधी रात हुई कि भीम अचानक उठकर चला गया ! अर्जुन की आँखें खुल गई उसने देखा कि बाजू में भीम सोया हुआ था वो है ही नहीं ! तो उसने सोचा कि भीम कहाँ चला गया ?
तो वो वह उठकर बाहर निकलता है और देखने जाता है ! तो देखता है कि भीम आधी रात में रसोई घर में बैठकर खाना खा रहा था !
अर्जुन ने जैसे ही ये दृश्य देखा तो पूछता है अरे भीम तू आधी रात को खाना खा रहा है ?
भीम ने कहा हाँ , बड़ी भूख लगी थी ! इसलिए रहा नहीं गया , मैं खा रहा हूँ ! अर्जुन ने कहा भले खाओ , लेकिन अंधेरे में तुम कैसे खा रहे हो ?
भीम मुस्कुराकर अर्जुन को कहता है - अर्जुन यह मेरा अभ्यास है ! मुझे खाने का इतना अभ्यास है कि वो इधर-उधर कहीं नहीं जायेगा , सीधा मुँह में ही जायेगा !
इससे अर्जुन ने प्रेरणा ली कि भीम के अंधेरे में खाने पर भी सीधा मुँह में जाता है ! अगर मैं भी अभ्यास करूं , अंधेरे में तीर चलाउं और निशाने पर लगे !
इसका नाम है अभ्यास और उस प्रेरणा को लेकर अर्जुन ने अपना अभ्यास आरम्भ किया ! तब इतना बड़ा धनुर्धर बन गया !'
भावार्थ ये है कि भगवान ने भी यही कहा कि
मन की एकाग्रता को बढ़ाने के लिए, विकसित करने के लिए हमें भी निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता है और जब आत्म संयम को लेकर अभ्यास करेंगे तो समस्त पापों से मुक्त्त हो जायेंगे एवं परमात्म सनिध्य में अतीन्द्रिय सुख और परमानन्द का अनुभव प्राप्त होता है तथा सर्व के प्रति आत्म भाव को विकसित कर ‘ वसुधैव कुटुंबकम ‘ की भावना जागृत होती है ! ये उसकी एक और उपलब्धि है कि ‘ वसुधैव-कुटंबकम ‘ की भावना को जागृत कर सकते हैं !
एक प्रशन अर्जुन के मन में आता है कि हे भगवान !
ये मन बड़ा चंचल है , हठी है , बलवान है इसलिए इसे वश में करना वायु की भान्ति अति दुष्कर मानता हूँ !
तो भगवान ने उसका बहुत सुन्दर जवाब दिया-
अर्जुन ,
निःसंदेह मन चंचल है परन्तु अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में हो सकता है ! अभ्यास करने की ज़रूरत है ! मन को वश में न करने वाले पुरूष के लिए योग बहुत कठिन है ! किन्तु स्व-वश मन वाले पुरूषार्थी के लिए योग सहज हो जाता है!
पुरूषार्थ माना पुरूष के अर्थ !
जो पुरूष के अर्थ हम करते हैं वो पुरूषार्थी और स्व-वश के आधार पर जब पुरूषार्थ करते तो मन को वश करना भी सहज है !
भले वो चंचल है , हठी है , बलवान है , वायु की भान्ति है , लेकिन फिर भी ये नहीं कि वो वश में नहीं होता है ! मन वश में हो सकता है ! सिर्फ मन को समझाने की आवश्यकता है !
आज एक बच्चा बहुत चंचल है , बहुत तुफानी है ! इतना तूफान मचाता है , इतनी चंचलता करता है , पड़ोसी उसको रोकने के लिए के लिए कितना भी प्रयत्न करे लेकिन वो बच्चा वश में नहीं होता है !
लेकिन जैसे ही उसकी माँ आती है उस बच्चे की साइकॉलोजी को अच्छी तरह से समझती है कि इस वक्त्त ये तूफान मचा रहा है तो उसका कारण क्या है ?
उसको चीज़ पकड़ा देती है और बच्चा शान्त हो जाता है , और शान्ति से बैठ जाता है !
मन भी चंचल है ! लेकिन जब तक हम मन को समझते नहीं हैं तब तक उसको वश करना बहुत मुश्किल है ! लेकिन जैसे ही मन की रूचि को समझने लगो , मन की आदतों को समझने लगो फिर जैसे-जैसे आप उसकी साइकॉलोजी को परखने लगते हैं उस समय उसको वही चीज़ अगर मिल जाती है तो मन क्यों वश में नहीं होता ?
मन सहज वश में हो सकता है ! मन को वश में करने के लिए मन को समझने की आवश्यकता है ! तो मन की रूचि कहाँ है ?
मन को क्या अच्छा लगता है ?
मन को हमेशा अच्छी बातें ही अच्छी लगती हैं ! फालतू बातों से मन इतना ऊब चुका है , मन को ज़रा भी उसमें इंटरेस्ट नहीं आता है ! लेकिन हम सभी क्या करते हैं मन को हमेशा फालतू बातें देने का प्रयत्न करते हैं ! जितना फालतू बातें देने का प्रयत्न करते हैं उतना मन चिड़चिड़ा होने लगता है ! इरैटिक होता है इसलिए आज मन बड़ी चंचलता मचाने लगता है !
तो भावार्थ ये है- मन की रूचि अनुसार उसको अच्छी-अच्छी बातें हर रोज़ देते रहो तो क्यों मन वश में नहीं होगा , जरूर होगा ! क्योंकि उसको अच्छी बातें भाती हैं , अच्छी लगती हैं ! रोज़ उसको परखने की आवश्यकता है !
फिर एक और महत्त्वपूर्ण सवाल अर्जुन पूछता है भगवान से कि – हे भगवान अगर पुरूषार्थ में कोई व्यक्त्ति असफल हो जाये जिसकी योग में श्रद्धा है , पर अन्त समय मन विचलित हो जाये तो वो योग सिद्धि के बजाय किस गति को प्राप्त होता है ?
तो भगवान बहुत अच्छा उसका जवाब दिया-
कि पुरूषार्थी कभी भी दुर्गति को प्राप्त नहीं होता है ! वो पुनः जन्म पाकर अपने पूर्व जन्म के दैवी संस्कारों को जागृत करता है और योगाभ्यास के मार्ग पर आकर्षित होकर आगे बढ़ता है !
जो उसकी अधूरी यात्रा है उसको पूरा करता है और जो योगी नियमपूर्वक समस्त पापों से शुद्ध होकर सच्ची निष्ठा से प्रगति करता है वह श्रेष्ठ गति को प्राप्त हो जाता है ! योगी पुरूष तपस्वियों , ज्ञानियों तथा सकाम कर्मियों से भी श्रेष्ठ है ! इसलिए हे अर्जुन ! तुम योगी बनो !
भगवान ने अर्जुन को योगी बनने की प्रेरणा दी ! तपस्वी, श्रषि बनने की प्रेरणा नहीं दी , खाली ज्ञानी बनने की प्रेरणा नहीं दी , ज्ञानी तो आज दुनिया में बहुत हैं लेकिन भगवान ने अर्जुन को कौन सी प्रेरणा दी ?
कि तुम योगी बनो और समपर्ण के साथ अंतर्मन से योग का आचरण करो ! ये सही जीवन है ! ये जीवन जीने की कला उसको बतायी , जो हम सब के लिए हैं ! इस तरह छठा अध्याय समाप्त होता है !