E.23 Most Stable Mind- Bhagwad Geet In Hindi

स्थिर बुद्धि किसको कहा जाता है और उसके लक्षण क्या होते हैं ? अपनी कर्मेन्द्रियों पर राज्य करने वाला ही अविनाशी ईश्वरीय ज्ञान को धारणा कर सकता है !

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गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य (तीसरा और चौथा अध्याय)

“स्वधर्म, सुख का आधार” 

The Great Geeta Episode No• 023

यहाँ पर बुहत अटेन्शन रखने वाली बात भगवान कहते हैैैं कि ” आसक्त्ति और संगदोष ” से सावधान रहना है !

हे अर्जुन ! जब तुम अच्छे मार्ग पर चलने लग पड़ोगे तो वहाँ आसाक्त्ति भी आ सकती है और संग भी तुम्हारे ऊपर अपना प्रभाव डाल सकता है !
तू ‘ आसाक्त्ति और संगदोष ‘ को त्यागकर ‘ सिद्धि और असिद्धि ‘ में समान भाव रखकर योग में स्थित होकर निष्काम कर्म कर !

  • यह समत्व भाव ही योग कहलाता है , यही हमारे जीवन और मनःस्थिति को संतुलित करता है !
  • कैसी भी परिस्थिति आ जाये लेकिन हम उसमें विचलित नहीं होंगे !
  • अपने जीवन में बुहत सुन्दर अनुभव कर पायेंगे !

आगे कहा कि

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विचलित बुद्धि

समत्व बुद्धि के साथ कर्मो का आचरण कौशल ही योग है ! ये जीवन में आवश्यक है !

विचलित बुद्धि जिस समय समाधि में स्थिर हो जायेगी , तब तुम योग की पराकाष्ठा ( Climax) , अमृत पद को प्राप्त करोगे इन सात गुणों को हम जितना विकसित करते हैं उतना अपने चारों ओर एक प्रभा (Aura) को विकसित करते जाते हैं !

तब सहज ही सिद्धि स्वरूप स्थिति को प्राप्त करना आसान हो जाता है ये है कर्मयोगी जीवन बनाने का आधार और उसकी विशोषतायें ! इसके बाद भगवान ने स्थिर बुद्धि पुरूष के लक्षण बतलाये !

स्थिर बुद्धि

  • स्थिर बुद्धि किसको कहा जाता है और उसके लक्षण क्या होते हैं ?
  • स्थिर बुद्धि माना जब मनुष्य , मन में स्थित सम्पूर्ण आसक्त्तियों को त्याग देता है , तब वह आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट हो जाता है तो उसे स्थिर बुद्धि वाला कहा जाता है !
  • ऐसा आत्म तृप्त महापुरूष ही स्थिर बुद्धि है !

कहने का भावार्थ यह है कि

  • आंतरिक मनःस्थिति सन्तुष्टता वाली होनी चाहिए !
  • अगर जीवन में आत्म सन्तुष्टि नहीं है और हमेशा नित्य भाव यही रहता है कि कैसे में सब कुछ प्राप्त करूँ और वह इसी के पीछे दौड़ता रहता है तो वो कभी ‘ स्थिर बुद्धि ‘ हो ही नहीं सकता !
  • लेकिन जिसमें आत्म-सन्तुष्टि आती है , वे आत्मा की शक्त्ति को विकसित करते हैं !
जब आत्मा में ये सातों गुण आ जाते हैं तो जीवन में सन्तुष्टता आ जाती है ! इसलिए सन्तुष्ट नर को सदा सुखी कहा गया है ! उसके जैसी श्रेष्ठ स्थिति और किसी की नहीं होती !
  • जिस प्रकार एक प्यासे को जब पानी मिल जाता है तो वह तृप्त हो जाता है !
  • एक भूखे को जब भोजन मिल जाता है , तो तृप्त अवस्था हो जाती है !
  • ऐसे ही आत्मा को जब सातों गुण प्राप्त हो जाते हैं तब वह आत्मा सन्तुष्ट हो जाती है और वो व्यक्त्ति ‘ स्थिर बुद्धि ‘ बन जाता है !

आगे बताया है कि

वह व्यक्त्ति कछुए की तरफ होता है जो अपनी कर्मेन्द्रियों को समेटकर उन्हें इन्द्रिय विषयक रसनाओं से हटाना जानता है वही स्थिर बुद्धि है !

जितना आसाक्त्तियों में मनुष्य फंसा होता है , वह ‘ स्थिर बुद्धि ‘ नहीं हो सकता !

भावार्थ यह कि जैसे कछुआ अपना कर्म करता है अपनी इन्द्रियों का विस्तार भी करता है लेकिन जहाँ खतरा महसूस होता है , वहाँ अपनी इन्द्रियों को समेट लेता है !

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अर्थात् समेटने की शक्त्ति

समेटने की शक्त्ति उसके अन्दर आ जाती है !

ठीक इसी तरह जब कर्म करना है , तो हम अपनी इन्द्रियों को विस्तार में लायें कर्म भी करें लेकिन जहाँ ये महसूस हुआ कि ये आसाक्त्ति मुझे कोई न कोई प्रकार के बुराइयों में फंसायेगी तो अपनी इन्द्रियों को समेट लेना है !

अर्थात् समेटने की शक्त्ति और अंतर्मुखता की धारणा , ये आत्मानुभूति की ओर ले जाती है !

कर्मयोगी बनते हुए वा अपनी ज़िम्मेवारियों को निभाते हुए भी हम ‘ स्थिर बुद्धि ‘ बन सकते हैं !

भगवान ने कहा है कि (स्व अनुशासित)

जिस प्रकार तेज हवा पानी पर तैर रही किशती को बहाकर ले जाती है , ठीक उसी प्रकार कर्मेन्द्रियों के वशीभूत मन उसके विवेक को हर लेता है !

जितना व्यक्त्ति का अपनी इन्द्रियों पर अधिकार होता है वह स्थिर बुद्धि ‘ कहलाता है !

जितना व्यक्त्ति ‘ स्व अनुशासित ‘ अर्थात् अपनी इन्द्रियों के ऊपर अधिकार प्राप्त कर लेता है वह ‘ स्थिर बुद्धि ‘ हो सकता है , उसकी बुद्धि विचलित नहीं हो सकती है !

अपनी कर्मेन्द्रियों पर राज्य करने वाला ही अविनाशी ईश्वरीय ज्ञान को धारणा कर सकता है !

एक बार धारण किया हुआ ज्ञान सदा शाश्वत् रूप में अन्दर समाया हुआ रहता है ! वो हमारे मन को विचलित नहीं करता , ज्ञान हमें स्व-अनुशासन ' प्राप्त करने में मदद करता है !

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