महाशिवरात्रि का महापर्व : परमपिता शिव और शंकर जी

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महाशिवरात्रि का महापर्व

महाशिवरात्रि का महापर्व कई आध्यात्मिक रहस्यों को समेटे हुए हैं। यह पर्व सभी पर्वों में महान और श्रेष्ठ है, क्योंकि शिवरात्रि परमात्मा के दिव्य अवतरण का यादगार महापर्व है। परमात्मा ने श्रीमद् भागवत गीता में कहा है-

‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥’

गीता के इस श्लोक में किए अपने वादे के अनुसार- परमात्मा कहते हैं कि जब-जब इस सृष्टि पर धर्म की अति ग्लानि हो जाती है, अधर्म और पाप कर्म बढ़ जाते हैं, तब मैं भारत सहित पूरी सृष्टि का उत्थान करने और नई दुनिया की सृजन करने साकार रूप में लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं।

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मैं इस धरा पर अवतरित होकर सज्जन-साधु लोगों की रक्षा, दुष्टों का विनाश और एक सतधर्म की स्थापना करता हूं। चारों युगों में कल्प के अंत में एक बार ही मेरा इस धरा पर अवतरण होता है।

परमात्मा के गीता में वर्णित इन महावाक्यों के अनुसार, वर्तमान में वही समय नई सृष्टि के सृजन का संधिकाल चल रहा है। इसमें सृष्टि के सृजनकर्ता स्वयं नवसृजन की पटकथा लिख रहे हैं। वह इस धरा पर आकर मानव को देव समान स्वरूप में खुद को ढालने का गुरुमंत्र ‘राजयोग’ सिखा रहे हैं।

सबसे महत्वपूर्ण बात दुनिया की यह सबसे बड़ी और महान घटना बहुत ही गुप्त रूप में घटित हो रही है। वक्त की नजाकत को देखते हुए जिन्होंने इस महापरिवर्तन को भाप लिया है वह निराकार परमात्मा की भुजा बनकर संयम के पथ पर बढ़ते जा रहे हैं।

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ऐसे लोगों की संख्या एक दो नहीं बल्कि लाखों में है। इन्होंने न केवल परमात्मा की सूक्ष्म उपस्थिति को महसूस किया है वरन इस महान कार्य के साक्षी भी हैं।

शिव पर कांटों के समान चुभने वाली बातें अर्पित कर दें

महाशिवरात्रि पर्व पर हम शिवालयों में अक-धतूरा, भांग आदि अर्पित करते हैं। इसके पीछे आध्यात्मिक रहस्य यह है कि जीवन में जो कांटों के समान बुराइयां हैं, गलत आदतें हैं, गलत संस्कार हैं, कांटों के समान बोल, गलत सोच को आज के दिन शिव पर अर्पण कर मुक्त हो जाएं।

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हम दुनिया में देखते हैं कि दान की गई वस्तु वापस नहीं ली जाती है। इसी तरह परमात्मा पर आज के दिन अपने जीवन की कोई एक बुराई जो हमें आगे बढ़ने से रोक रही है, सफलता में बाधक है उसे शिव को सौंपकर मुक्त हो जाएं।

अपने जीवन की समस्याएं, बोझ उन्हें सौंप दें। फिर आपकी जिम्मेदारी परमात्मा की हो जाएगी।

एक बच्चे का हाथ जब उसके पिता पकड़कर चलते हैं तो वह निश्चिंत रहता है। इसी तरह हम भी यदि खुद को परमात्मा को सौंपकर जीवन में चलते हैं तो सदा निश्चिंत रहते हैं।

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परमपिता शिव इस धरा पर अवतरित होकर हम सभी विश्व की मनुष्यात्माओं को सहज राजयोग की शिक्षा दे रहे हैं। परमात्मा आह्नान करते हैं मेरे बच्चों तुम मुझ पर अपनी बुराइयों अर्पण कर दो।

अपने बुरे विचार, भावनाएं, गलत आदतें शिव पर अर्पण करना ही सच्ची शिवरात्रि मनाना है। अपने अंदर के अंधकार को मिटाकर जीवन में ज्ञान की ज्योत जगाएं।

धर्म का आचरण ड्रेस पहनने से नहीं बन जाता है। उसे जीवन चरित्र में उतारना होगा। जिसे हम युगों-युगों से पुकार रहे थे, जिसकी तलाश में हमने वर्षों तक जप-तप और यज्ञ किए।

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आज वही भगवान इस धरा पर पुन: अवतरित हो चुके हैं। अपने पांच खोटे सिक्के अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार को प्रभु को अर्पण कर रोज ईश्वर के दर पर एक बार आना अर्थात् भगवान के घर में एक बार जरूर आना।

ज्योतिर्बिंदु स्वरूप हैं परमात्मा

भारत में 12 ज्योतिर्लिंग प्रसिद्ध हैं और गली-गली में शिवालय बने हुए हैं। इससे स्पष्ट होता है कि वह परमपिता परमात्मा कभी इस सृष्टि पर आएं हैं और विश्व कल्याण का कार्य किया है, तभी तो हम उन्हें याद करते हैं।

परमात्मा का स्वरूप ज्योतिर्बिंदु है। श्रीमद्भ भगवत गीता से लेकर महाभारत, शिव पुराण, रामायण, यजुर्वेद, मनुस्मृति सभी में कहीं न कहीं परमात्मा के अवतरण की बात कही गई है।

किसी भी धर्म ग्रंथ में परमात्मा के जन्म लेने की बात नहीं है। हर जगह प्रकट होने, अवतरण पर परकाया प्रवेश की बात को ही इंगित किया गया है। क्योंकि परमात्मा का अपना कोई शरीर नहीं होता है।

वह परकाया प्रवेश कर नई सतयुगी सृष्टि की स्थापना का दिव्य कार्य कराते हैं। यहां तक कि शिव पुराण में स्पष्ट लिखा है कि मैं ब्रह्मा के ललाट से प्रकट होऊंगा। शिव जन्म-मरण से न्यारे हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के भी रचयिता त्रिमूर्ति हैं, जिन्हें हम परमात्मा शिव कहते हैं।

शिव और शंकर में है महान अंतर

परमपिता शिव और शंकर जी में महान अंतर हैं। शिव जी और शंकर जी में वही अंतर है जो एक पिता-पुत्र में होता है। इस सृष्टि के विनाश कराने के निमित्त परमात्मा ने ही शंकर जी को रचा।

यहीं नहीं ब्रह्मा, विष्णु, शंकर के रचनाकार, सर्वशक्तिमान, सर्वोच्च सत्ता, परमेश्वर शिव ही हैं। वह ब्रह्मा द्वारा सृष्टि की स्थापना, शंकर द्वारा विनाश और विष्णु द्वारा पालना कराते हैं।

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‘शिवलिंग’ परमात्मा शिव की प्रतिमा है। परमात्मा निराकार ज्योति स्वरूप है। शिव का अर्थ है ‘कल्याणकारी’ और लिंग का अर्थ है ‘चिंह्न’ अर्थात् कल्याणकारी परमात्मा को साकार में पूजने के लिए ‘शिवलिंग’ का निर्माण किया गया।

शिवलिंग को काला इसलिए दिखाया गया क्योंकि अज्ञानता रूपी रात्रि में परमात्मा अवतरित होकर अज्ञान-अंधकार मिटाते हैं।

परमपिता परमात्मा शिव 33 करोड़ देवी-देवताओं के भी महादेव एवं समस्त मनुष्यात्माओं के परमपिता हैं। सारी सृष्टि में परमात्मा को छोड़कर सभी देवी-देवताओं का जन्म होता है जबकि परमात्मा का दिव्य अवतरण होता है।

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वे अजन्मा, अभोक्ता, अकर्ता और ब्रह्मलोक के निवासी हैं।

शंकर का आकारी शरीर है। शंकर, परमात्मा शिव की रचना हैं। यही वजह है कि शंकर हमेशा शिवलिंग के सामने तपस्या करते हुए दिखाए जाते हैं।

ध्यानमग्न शंकर की भाव-भंगिमाएं एक तपस्वी के अलंकारी रूप हैं। शंकर और शिव को एक समझ लेने के कारण हम परमात्म प्राप्तियों से वंचित रहे। अब पुन: अपना भाग्य बनाने का मौका है।

शिवलिंग पर तीन रेखाएं ही क्यों?

शिवलिंग पर तीन रेखाएं परमात्मा द्वारा रचे गए तीन देवताओं की ही प्रतीक हैं। परमात्मा शिव तीनों लोकों के स्वामी हैं। तीन पत्तों का बेल-पत्र और तीन रेखाएं परमात्मा के ब्रह्मा, विष्णु, शंकर के भी रचयिता होने का प्रतीक हैं।

वे प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा सतयुगी दैवी सृष्टि की स्थापना, विष्णु द्वारा पालना और शंकर द्वारा कलियुगी आसुरी सृष्टि का विनाश कराते हैं। इस सृष्टि के सारे संचालन में इन तीनों देवताओं का ही विशेष अहम योगदान है।

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शिव के साथ क्या है रात्रि का संबंध?

विश्व की सभी महान विभूतियों के जन्मोत्सव मनाए जाते हैं, लेकिन परमात्मा शिव की जयंती को जन्मदिन न कहकर शिवरात्रि कहा जाता है, आखिर क्यों? इसका अर्थ है परमात्मा जन्म-मरण से न्यारे हैं।

उनका किसी महापुरुष या देवता की तरह शारीरिक जन्म नहीं होता है। वह अलौकिक जन्म लेकर अवतरित होते हैं। उनकी जयंती कर्तव्य वाचक रूप से मनाई जाती है।

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जब-जब इस सृष्टि पर पाप की अति धर्मग्लानि होती है और पूरी दुनिया दु:खों से घिर जाती है तो गीता में किए अपने वायदे अनुसार परमात्मा इस धरा पर अवतरित होते हैं।

शिव कौन हैं?

भारत देश 33 करोड़ देवी-देवताओं का देश है। परन्तु इन सभी देवताओं को बनाने वाले एक ही परमपिता परमात्मा शिव है, जिसकी अनेक धर्मों, अनेक रूपों में भले ही पूजा की जाती है परन्तु उसका केन्द्र-बिन्दु परमात्मा शिव के पास ही जाकर समाप्त होता है।

परमात्मा शिव देवों के भी देव महादेव, ब्रहा, विष्णु, शंकर के भी रचयिता त्रिमूर्ति, तीनों लोकों को के मालिक त्रिलोकीनाथ, तीनों कालों को जानने वाले त्रिकालदर्शी हैं।

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विश्व की सभी आत्माओं के परमपिता परमात्मा शिव है। परमात्मा जन्म-मरण से न्यारे है। उनका जन्म नहीं होता बल्कि परकाया प्रवेश होता है।

परमपिता शिव अजन्मा हैं, अभोक्ता, ज्ञान के सागर हैं, आनंद के सागर हैं, प्रेम के सागर हैं, सुख के सागर हैं। उनका स्वरूप ज्योतिर्बिन्दु है। परमात्मा शिव परमधाम के निवासी है।

शिव का अर्थ ही है ‘कल्याणकारी।’ परमात्मा शरीरधारी नहीं है। इसका मतलब ये नहीं कि उनका कोई आकार नहीं बल्कि स्थूल आंखों से न दिखने वाला सूक्ष्म ज्योति स्वरूप है।

परमात्मा शिव को सभी ग्रंथों, पुराणों और वेदों में भी सर्वोपरि ईश्वर माना गया है।  

मेरा जन्म दिव्य और अलौकिक है

गीता में भगवान के महावाक्य हैं- मेरा जन्म दिव्य और अलौकिक है। मैं सूर्य, चांद और तारागण के भी पार परमधाम का वासी हूं।

परमात्मा कहते हैं कि मैं प्रकृति को वश करके इस लोक में सतधर्म की स्थापना करने और प्राय: लुप्त हुआ ज्ञान सुनाने आता हूं। वत्स तू मन को मुझमें लगा।

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मैं तुझे सब पापों से मुक्त करुंगा, मैं तुम्हें परमधाम ले चलूंगा।

अब सवाल उठता है कि वह लुप्त हुआ ज्ञान क्या है? यदि वर्तमान में दिया जा रहा ज्ञान सही है तो फिर परमात्मा को इस धरा पर क्यों आना पड़ता है?

आखिर इस सृष्टि में सत्य ज्ञान क्यों और कैसे लुप्त हो जाता है? सत्य ज्ञान से मनुष्य दूर क्यों हो जाते हैं? इन सवालों के जवाब स्वयं परमात्मा राजयोग की शिक्षा के आधार पर देते हैं।

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वत्स! तू मन को मुझ में लगा

परमात्मा कहते हैं- वत्स! तू मन को मुझमें लगा। यदि भक्ति से भगवान मिलते तो फिर परमात्मा को यह बात क्यों कहनी पड़ती कि वत्स! तू मन को मुझमें लगा।

जैसे एक दिन में कोई विशाल पेड़ तैयार नहीं हो जाता है, उसी तरह आत्मा पर कई जन्मों पर चढ़ी विकारों, पापों की परत एक दिन में दूर नहीं होती है।

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इसके लिए हमें नियमित, सतत् परमात्मा का ध्यान करना पड़ता है। कर्म में ही योग को शामिल कर कर्मयोगी, राजयोगी जीवन-शैली को अपनाना होता है।

जब हम मन को एकाग्र कर खुद को आत्मा समझकर निरंतर परमात्मा को याद करते हैं तो उनकी शक्तियों से आत्मा पर लगी विकारों, पाप कर्म की मैल धुलती जाती है।

धीरे-धीरे एक समय बाद आत्मा, परमात्मा की शक्ति से संपूर्ण पावन, पवित्र और सतोप्रधान अवस्था को प्राप्त कर लेती है।

जहां सत्य ज्ञान है वहां पवित्रता है

आध्यात्मिकता स्वयं की रुचि, पुरुषार्थ और लगन से ही संभव है। आत्मा में सत्य से शक्ति आती है। इस विद्यालय में आत्मा को सुंदर, पवित्र बनाने की शिक्षा दी जाती है।

हम हर एक अपने जीवन के मालिक बनें। योगी बनना अर्थात् योग्य बनना। भगवान के बच्चे कहलाने लायक बनना। खुद के जीवन को सुधार कर दूसरों के लिए शुभभावना रखें।

‘हम ईश्वर के बच्चे हैं’ इस स्वमान में रहने की जरूरत है। आज हम हर बात को विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरने के बाद ही अपनाते हैं तो धर्म के मामले में अंधश्रद्धा क्यों?

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जहां सत्य ज्ञान है वहां पवित्रता है और स्वच्छता है।

शास्त्रों में वर्णित धर्म की अतिग्लानि का यह वही समय है। इस समय ही स्वयं परमपिता परमात्मा आकर मानव को फिर से देव बनने की शिक्षा देते हैं। यदि हम पवित्र बनें तो इस भूमि पर स्वर्ग आने में देरी नहीं लगेगी।

वर्तमान कलियुग का सारा काल ही महारात्रि

वर्तमान समय कलियुग का अंतिम चरण चल रहा है। यह सारा काल, रात्रि अथवा महारात्रि ही है। हम सभी नर-नारियों को यह शुभ संदेश देना चाहते हैं कि अब परमपिता परमात्मा शिव संसार को पावन तथा सुखी बनाने के लिए फिर से प्रजापिता ब्रह्मा के तन में अवतरित होकर सहज राजयोग की शिक्षा दे रहे हैं।

अत: हम सबका कर्तव्य है कि उनकी आज्ञानुसार हम पवित्रता और शुद्धता का पालन करें और शिव के अर्पण होकर संसार की ज्ञान से सेवा करे।

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वास्तव में यही सच्चा पाशुपत व्रत है। इसका फल मुक्ति और जीवन-मुक्ति की प्राप्ति माना गया है। अब मनुष्यों को चाहिए कि विकारों रूपी विष से नाता तोड़कर परमात्मा शिव से अपना नाता जोड़े।

तेजी से बदल रहा दुनिया का परिदृश्य

सृष्टि का शाश्वत नियम है कि कोई भी चीज हमेशा अपने मूल स्वरूप में नहीं रहती है। बदलाव या परिवर्तन प्रकृति का नियम है।

जैसे- दिन के बाद रात और रात के बाद दिन का आना तय है, उसी तरह सृष्टि चक्र में सतयुग के बाद त्रेतायुग, द्वापरयुग और फिर कलियुग क्रम से आना तय है।

चाहे प्रकृति का बिगड़ता संतुलन हो या समाज से विलुप्त होती मानवीय संवेदनाएं और गिरता नैतिक चरित्र, कहीं न कहीं विश्व परिवर्तन का स्पष्ट इशारा कर रही हैं।

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समय रहते इसे गंभीरता से समझने की जरूरत है। क्योंकि यह बदलाव ईश्वरीय संविधान का हिस्सा है, जो मानव के हित में है। धर्मग्लानि के जो चिंह्न शास्त्रों में बताए गए हैं, वर्तमान में दुनिया की स्थिति उससे भी दयनीय और गंभीर हो गई है।

मनुष्य का नैतिक और चारित्रिक रूप से इतना पतन हो चुका है कि ऐसे कार्यों का तो शास्त्रों, वेद-ग्रंथों तक में उल्लेख नहीं है।

प्रकृति भी दे रही है परिवर्तन का संकेत

सृष्टि के आदि में प्रकृति अपने मूल स्वरूप में थी। सतोप्रधान थी। हर तत्व सुखदायी था। समय के साथ प्रकृति भी बदलती गई। उसके पांचों तत्वों में मानवीय दोहन से विकृत होना शुरू हो गया।

आज असमय ही बाढ़, भूकंप, तूफान, आगजनी आम बात हो गई है। ये सभी बातें प्रकृति के बदलाव अर्थात् परिवर्तन की ओर संकेत कर रही है। संहार के बाद नवसृजन सृष्टि चक्र का नियम है।

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आज स्थिति यह है कि बड़े महानगरों में शुद्ध पेयजल तक का अभाव होने लगा है। शुद्ध ऑक्सीजन की कमी होने लगी है। जंगल और पेड़ों की संख्या दिनोंदिन घट रही है, उस अनुपात में पौधारोपण न के बराबर हो रहा है।

कार्बन उत्सर्जन से वायु प्रदूषण में भी तेजी से बढ़ोत्तरी हो रही है। उर्वरकों के प्रयोग से मिट्टी की उर्वरा शक्ति घट रही है। धरती का तापमान तेजी से बढ़ रहा है।

ग्लेशियर पिघल रहे हैं। पृथ्वी के भू-गर्भ में हलचल बढ़ रही है, इससे उसके स्वरूप में परिवर्तन आ रहा है। वर्षा ऋतु कम हो रही है या असमय 12 महीने कभी भी बारिश हो रही। सारी चीजें अति की ओर बढ़ रही हैं।

मानवीय मूल्यों का पतन और पुनर्स्थापना

व्यक्ति के कर्म इतने निम्न स्तर पर पहुंच गए हैं जिनकी कभी कल्पना नहीं की होगी। धर्म शास्त्रों में धर्मग्लानि के जो चिंह्न बताए गए हैं उससे भी निम्न दर्जे की घटनाएं सामने आ रही हैं, जिसने हमारे मानव होने पर ही प्रश्न चिंह्न लगा दिया है। सृष्टि के विनाश और नवयुग के सृजन का ये वही संधि काल ‘संगमयुग’ चल रहा है।

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हीरो के जौहरी से विश्व शांति के मसीहा का सफर

सन् 1937 की बात है। हीरे-जवाहरात के उस समय के प्रसिद्ध जौहरी दादा लेखराज की जिंदगी सुख-शांतिमय चल रही थी।

लेकिन परमात्मा को पाने की दिल में इतनी प्रबल इच्छाशक्ति और उत्कंठा थी कि उन्होंने अपने जीवन में 12 गुरु बनाए थे। वह गुरु की आज्ञा को भगवान की आज्ञा मानते थे।

दादा लेखराज एक दिन वाराणसी में अपने मित्र के यहां गए थे। उन्हें रात्रि में अचानक इस दुनिया के भयंकर महाविनाश का साक्षात्कार होने लगा। ऐसे विनाशक हथियारों का साक्षात्कार हुआ जो उस समय इसकी परिकल्पना तक नहीं की थी। फिर इसके बाद नई दुनिया की स्थापना के लिए आसमान से उतरते देवी-देवताओं का भी साक्षात्कार हुआ।

दादा को यह बात समझ नहीं आई। जब वह घर पहुंचे और एक दिन कमरे में बैठे थे, तब उनके अंदर निराकार परमपिता परमात्मा ने प्रवेश कर साक्षात्कार कराया।

साथ ही स्वयं परमात्मा ने अपना परिचय दिया कि-

निजानन्द स्वरूपं शिवोहम्, शिवोहम्।

आनन्द स्वरूपम् शिवोहम् शिवोहम्।

प्रकाश स्वरूपम् शिवोहम् शिवोहम्।

इस परिचय के साथ परमपिता परमात्मा ने आदेश दिया कि अब तुम्हें एक नई दुनिया बनानी है। यही से शुरू हुआ परमात्मा के दुनिया बदलाव का गुप्त कार्य जो आज तक अनवरत चल रहा है।

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नारी को ताज देकर शक्ति स्वरूपा बनाया

दादा ने अपना सारा कारोबार समेटकर विश्व परिवर्तन के इस महान कार्य की बहुत ही छोटे स्तर से नींव रखी। यह वह दौर था जब नारी की समाज में दशा ठीक नहीं थी।

उसे दीन-हीन भाव से देखा जाता था। चूंकि परमात्मा को भारत माता और वंदे मातरम् की गाथा को चरितार्थ भी करना था। नारी को शक्ति स्वरुपा के ताज से सुशोभित करने के लिए उन्होंने बाकायदा नारी शक्ति का एक संगठन बनाया, जिसे नाम दिया गया ‘ओम मंडली।’

इसमें संचालन से लेकर ‘ज्ञान अमृत’ देने का दायित्व नारी शक्ति को दिया। नारी के जीवन की दिशा और दशा बदलने की संभवत: इस युग का वह पहला प्रयास था।

बाबा की विराट सोच ही थी कि नारी को विश्व शांति और युग परिवर्तन का कलश सौंपकर उनका हर पल मार्गदर्शन किया।  इसके साथ ही परमात्मा ने दादा को दिव्य नाम ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ दिया, जिन्हें हम सभी प्यार से ‘ब्रह्मा बाबा’ कहने लगे।

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परमात्मा ऐसे रच रहे हैं नवसंसार

नवसृजन का कार्य एक प्रक्रिया के तहत ईश्वरीय संविधान के अनुसार होता है। जैसे एक विद्यार्थी विद्या अध्ययन की शुरुआत पहली कक्षा से करता है और फिर वह साल दर साल आगे बढ़ते हुए एक दिन विशेष योग्यता प्राप्त कर न्यायाधीश, आईएएस, सीए, पायलट, शिक्षक, वैज्ञानिक और पत्रकार बनता है।

इसी तरह निराकार परमात्मा ईश्वरीय संविधान के तहत शिक्षा देकर स्वर्णिम दुनिया, नवयुग के स्थापना की आधारशिला रखते हैं। स्वयं परमात्मा ही नर से श्रीनारायण और नारी से श्रीलक्ष्मी बनने के लिए राजयोग ध्यान सिखाते हैं।

राजयोग को चार मुख्य विषय (ज्ञान, योग, सेवा और धारणा) में बांटा गया है। इस ईश्वरीय विश्व विद्यालय में आज लाखों लोग अपना दाखिला कराकर पढ़ाई को पूरी लगन, मेहनत, त्याग और तपस्या के साथ पढ़ रहे हैं।

इसके परिणामस्वरूप मानव के व्यक्तित्व में दिव्यगुण, विशेषताएं और दिव्य शक्तियां स्वाभाविक रूप से झलकने लगती हैं। चार विषयों में प्रवीण होने के बाद आत्मा अपनी संपूर्णता की स्थिति को प्राप्त कर उड़ जाती है।

Source: Brahma Kumaris

Ashish
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