ईश्वर की प्राप्ति के लिए जो मार्ग बताये गये है वो निम्न है –
1) ज्ञान मार्ग
2) भक्ति मार्ग
3) सन्यास मार्ग
ज्ञान मार्ग
ज्ञान मार्ग में हमें परमात्मा की सही पहचान और उसे याद करने की यथार्थ विधि प्राप्त होती। जिससे हम परमात्मा (निराकार शिव) को याद कर, देवी-देवता जैसा सम्पूर्ण बनने का पुरुषार्थ कर सकते है। यह ज्ञान सभी आत्माओं के लिए है।
भक्ति मार्ग
भक्ति मार्ग में देवी- देवताओं की मूर्ति पूजा, अर्चना की जाती है। इसमें माला फेरना, नाम जपना, स्मरण करना, यज्ञ करना आदि विधियों का प्रयोग किया जाता है।
सन्यास मार्ग
सन्यास मार्ग में दुनिया की ओर पीठ कर एकान्त में वैराग्य धारण कर योग-साधना की जाती है, जोकि निवृति मार्ग, ध्यान मार्ग का प्रतीक है।
देवी-देवता की पूजा
देवी-देवताओं को मानने वालों को देवी-देवता की पूजा करनी चाहिये
- क्योंकि मंदिर में जब जाते है, भले कुछ समय के लिए लेकिन हम शांत हो जाते है।
- पूजा करते समय भी सब विधि विधान मानते है।
- उपवास रखते है।
- व्यर्थ विचार कुछ समय के लिए शांत हो जाते है।
- यह उनकी शुद्ध आस्था है, जब वे पूजा करते है तो कम से कम वो उस समय पाप कर्म से तो बच गए,
- भजन कीर्तन ही सही दुनिया में भगवान नाम की महीमा ही तो कर रहे है ना, उसका पुण्य भी तो बनता है ना।
- यदि कोई नौधा भक्ति करें तो उसको साक्षात्कार भी हो जाता है।
भावना
सारा मदार भावना का ही तो है। जैसी जिसकी भावना तैसी दिखे तस्वीर। जो जिस भी देवी-देवता की पूजा करता है। उसे उसी देवी-देवता से प्राप्ति भी जरुर होती ही है। इससे उनका विश्वास उस देवी-देवता में दृढ होता जाता है।
गीता
गीता में लिखा हुआ भी है, देवताओं को भजने वाले देवपद को प्राप्त होते है, वे स्वर्ग का सुख भोगते है, फिर पुण्य के क्षीण होने पर वापस मनुष्य लोक को प्राप्त होते हैं। इसका अर्थ यह हुआ की देवी-देवतायें पुण्य के क्षीण होने पर मनुष्य लोक में ही जन्म लेते है।
गीता के सातवें अध्याय में देवताओं की उपासना का विषय लिया गया है…
यहाँ पहले ही भगवान बताते है कि ये अर्जुन!
मुझे जानने के लिए हजारों में कोई विरला ही प्रयत्न करता है और उसमें भी कोई विरला ही मुझे जान पाता है।
भगवान का वो कौनसा स्वरुप है। जिसके बारे में भगवान कह रहे है जिसको हम नहीं जानते?
जरा सोचें तो.. क्या हम भगवान को जान पाए है? आगे कहा गया है कि- जो ज्ञानी है वो गूढ़ रहस्यों को समझने का प्रयत्न करते है, इसलिए वो अधिक मात्रा में नहीं होते, वो कम मात्रा में होते है। लेकिन यथार्थ को समझ लेते हैं।
जब हम लोग भी ज्ञान में नहीं थे तब भक्ति करते थे, देवी-देवता को ही भगवान मानते थे। अब परमात्मा ने आकर सही ज्ञान दिया और उसे धारण करने से अपने आप ही भक्ति छूट जाती हैं।
अज्ञानी लोगों को पता ही नहीं हैं, वो जिनकी पूजा कर रहे है वो भगवान नहीं हैं। निराकार शिव ने कहा है भक्ति का फल ज्ञान है। जैसे भक्ति पूरी हो जायेगी अवश्य फल रूप में ज्ञान मिलेगा जिससे स्वतः पूजा करना, भक्ति आदि छूट जायेगी।
देवी देवताओं को पूजो अवश्य परंतु पूजन का तरीका बदलने की जरूरत है, निराकार शिव ने हमें बताया कि बच्चों यह देवी- देवता तो तुम ही थे। लेकिन जन्म लेते लेते भूल गए हो, इसलिए इनकी मूरत को पूजने की बजाय इनके गुणों को अपनाओं। यही तुम्हारी सबसे बड़ी पूजा है।
जब ये गिरावट अति में पहुँच जाती है। भ्रष्टाचार, पापाचार इतना बढ़ जाता है। तब भगवान को आना पड़ता है।
अब वही समय है इसलिए अब भगवान आये हैं। अब तक हम देवी-देवताओ के चित्रो के दर्शन को ठीक मान कर पूजा करते आये। अपनी जगह सही थे क्योकि ज्ञान नही था।
लेकिन अब जब भगवान ने आकर सब बता दिया। सारे राज खोल दिए। भक्त की बजाए अपना बच्चा बना दिया। तो जिस तरह परमात्मा हमें शिक्षा देते अब हमें परमात्मा को वैसे ही याद करना चाहिये।
परमात्मा ने ये नही कहा कि मेरी प्राप्ति मंदिर में होगी। अब सही रास्ता आकर बता रहे हैं जिससे हम सही अर्थो में परमात्मा को पा सकते हैं।
भक्ति बिन ज्ञान कहां, ज्ञान से मिली मुक्ति,,, ज्ञान मुक्ति की प्रबल धारा से वैकुण्ठ में मिलती फिर जीवनमुक्ति।
देवी-देवताओं की पूजा का अर्थ है कि हम उनके वंशज हैं और उनके जीवन में जो नैतिक मूल्य, दिव्यताएं, गुण, शक्तियां आदि थी उन्हें प्राप्त करने के लिए हम उनको याद करते हैं। इसका एक ही मकसद है कि उनके द्वारा दिए सिद्धांतों और पदचिन्हों पर चल उनके जैसा बनना।
हम उनकी पूजा अर्चना करते हुए ये भूल जाते हैं कि हमें उनसे केवल शक्तियाँ आदि मांगनी नही हैं बल्कि उनके गुणों को धारण करने की कोशिश भी करनी है।
आज के दौर में पूजा अर्चना करना बहुत अच्छी बात है लेकिन अगर आप देखें की एक बच्चा, अपने माता पिता का सम्मान करता है पर इसके बावजूद भी अगर वह बच्चा उनकी आज्ञा नही माने तो वह आज्ञाकारी बच्चा नही कहलायेगा।
तो इससे उसको सुखमय परिणाम नही मिल पाता। ऐसे ही देवी देवताओं की पूजा आवश्य करें लेकिन उनके द्वारा बताई जो मर्यादाएं हैं उनके फॉलो करें तो हमें प्रैक्टिकल में फायदा मिल सकता है।
कहा भी गया है कि नर ऐसी करनी करे के नारायण पद पाए, नारी ऐसी करनी करे जो लक्ष्मी पद पाए।
तो हमारे कर्मो पर ये बहुत कुछ डिपेंड करता है कि कर्म हमारे कैसे है और वही हमारे जीवन का निर्धारण करते हैं।
श्रीराम, श्रीकृष्ण और अन्य देवी-देवता वास्तव में दिव्य प्रेरणा से कर्म करने वाले थे l ये ईश्वर भक्ति तथा पवित्र मन का साक्षात उदाहरण थे। इसलिये साधारण व्यक्तियों की द्दष्टि में वे ही पूजनीय हैं l किन्तु वेद ईश्वर के अतिरिक्त अन्य किसी की भी उपासना का निषेद्ध करते हैं।
ऊँच ते ऊँच सिर्फ एक निराकार परमपिता परमात्मा शिव है। वो हम सब आत्माओं के पिता हैं। उनका देवी देवता (जो की शिव पिता की संतान हैं) की तरह अपना शरीर नहीं।
देवी-देवता सतयुग में होते हैं। सतयुग में उनकी आत्मा पवित्र होती तो शरीर भी पवित्र मिलता हैं। अभी हैं कलयुगी दुनिया तो आत्मा भी अपवित्र तो शरीर भी अपवित्र मिलता हैं।
उनकी महिमा इसलिए है क्योंकि वो सतयुग में पवित्र थे। वास्तव में वो कोई भगवान नहीं क्योकि वो पुनर्जन्म में आते हैं। ऊँच ते ऊँच तो हैं सिर्फ एक निराकार शिव जो जन्म- मरण में नहीं आते।
भक्ति मार्ग में सब देवी-देवता के दर्शन करते मगर उनसे कुछ पल की सुख शांति पाते। एकरस सुख शांति तो सिर्फ एक परमपिता परमात्मा ही दे सकते हैं क्योंकि वही हैं सुख शांति प्रेम के सागर।
वास्तव में परमात्मा निराकार शिव ने इस धरा पर आकर मनुष्य आत्मा को ज्ञान दिया कि अब इस सृष्टि का अंतिम समय है और देवी देवतायें कोई और नही इस दुनिया में जास्ती भक्ति और बिल्कुल ही गिर गयी आप मनुष्य आत्मा ही हो।
उन्होंने हमें बताया कि हम ही इस कल्प के आदि से अंत तक 84 जन्म लेने वाली आत्माये है और हम ही देवी-देवता स्वरुप 16 कला सम्पूर्ण आत्मा थे और हम ही चक्र में समय परिवर्तन और गिरावट के कारण हम पावन से पतित बन गए।
अर्थात जब-जब इस धरा पर धर्म की अति ग्लानि होती और पापाचार, भ्रस्टाचार अपने चर्म सीमा पर पहुँच जाता तब तब भगवान को इस धरा पर अवतरित होकर धर्म की स्थापना और अधर्म का विनाश करना पड़ता और नई राज्य ,नई दुनिया स्थापन करनी पड़ती है।
इसलिए निराकार शिव वही पूर्वज आत्माओं को आत्मसात कर उन्हें स्वयं का परिचय दिया। और पुनः देवत्व पद की प्रॉप्ति करा रहे है।
इसलिए बजाय उनकी पूजा करने के उनके आदर्शो का अनुसरण करना चाहियें l उनके गुणों को आत्मसात करके उनके अनुसार शुभ कर्म करें l
निराकार शिव (गीता) की कहना हैं कि अब नाष्टोमोहा बनना है। नष्टोमोहा तब बनेंगी जबकि सच्ची स्नेही होंगी। जैसे कोई भी चीज को आग में डालने के बाद उसका रंग-रूप सब बदली हो जाता है।
तो जो भी थोड़े आसुरी गुण, लोक-मर्यादाएं है, कर्मबन्धन की रस्सियाँ, ममता के धागे जो बंधे हुए हैं- उन सबको जलाना है।
इस स्नेह की अग्नि में पड़ने से यह सब छूट जायेगा। आप सबकी यादगार अब तक भी कायम है। जितनी-जितनी याद है उतनी-उतनी सबकी यादगार बनी हुई है, अगर याद कम है तो यादगार भी ऐसा ही होगा।
अगर यादगार कायम रखने का प्रयत्न करना हैं तो पहले “याद” कायम रखो, फिर उस आधार पर यादगार बनना है।
अध्यात्म विषय बड़ा ही गहरा और सूक्ष्म है, हमारे मन में भी कई तरह के अध्यात्म से समन्धित प्रश्न उपजते ही रहते है। इसके लिए नीचे दिए गए आर्टिकल का पढ़े सकते है