गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य (नवाँ, दसवाँ, गयारहवाँ एंव बारहवाँ अध्याय)
“समर्पण भाव”
The Great Geeta Episode No• 049
भक्त्ति-योग
बारहवें अध्याय में भक्त्ति-योग स्पष्ट करते हैं कि परमात्मा के शुद्ध प्रेम को पाने का सबसे सुगम एवं सर्वोच्च साधन भक्त्तियोग है !
भक्त्ति का मतलब क्या है ? पूजा-पाठ , दीया , अगरबत्ती जलाना यह भक्त्ति नहीं है ! ये तो एक क्रिया है ! मन ईश्वर में लगे उसके लिए ये साधन अपनाए हैं !
🏤 जैसे एक मकान हो ! मकान की छत जब डलती है तो नीचे से अधार दिए जाते हैं ताकि छत पक्की हो जाए ! लेकिन छत पक्की होने के बाद भी अगर अधार निकालेंगे नहीं तो कैसे रहेंगे !
ठीक इसी तरह जब तक हमारा मन भी परिपक्व अवस्था को प्राप्त नहीं करता है , तब तक ये साधन अपनाएं ! पूजा-पाठ करने का अर्थ है कि उस परिपक्व अवस्था को प्राप्त करने में मन लगे !
तो माला , जप-तप ये सारे अधार अपनाएं ! ये साधन हैं इस मन की परिपक्व अवस्था को बनाने के लिए ! लेकिन उसी आधार के बीच में रहना चाहेंगे तो क्या होगा ? धुटन होगी ! इसलिए भक्त्ति माना जैसे मीराबाई ने जो भक्त्ति की और आज का मनुष्य जो भक्त्ति कर रहा है दोनों की भक्त्ति में अन्तर है !
आज की भक्त्ति में क्रिया ज़्यादा हो गयी है लेकिन मीराबाई की भक्त्ति में प्रेम ज़्यादा था ! तो भक्त्ति का मतलब क्या है ईश्वर के प्रति प्रेम ! तो इसलिए भक्त्ति-योग को सर्वोच्च साधन बताते हैं ! इस परम पथ का अनुकरण करने वालों में दिव्य गुण उत्पन्न होते हैं !
निराकार भक्त्ति या साकार भक्त्ति
जैसे लोग पूछते हैं कि निराकार की भक्त्ति करें या साकार की भक्त्ति करें !
अर्जुन का भी यही सवाल था कि भगवान मैं आपको निराकार रूप में याद करूं या साकार रूप में याद करूं ?
- निराकार की भक्त्ति में विध्न कौन से आते हैं ?
- अर्जुन भगवान से प्रशन पूछता है कि आपमें अनन्य भक्त्ति से लगने वाले और अव्यक्त्त की उपासना में लगने वाले दोनों में श्रेष्ट कौन है ?
- आकार रूप में याद करूं या अव्यक्त्त रूप में याद करूं ? दोनों में श्रेष्ट क्या है ?
- साकार स्वरूप की भक्त्ति श्रेष्ठ है या निराकार स्वरूप की भक्त्ति श्रेष्ठ है ?
भगवान कहते हैं कि
मुझमें में मन लगा कर सदा योगयुक्त्त होकर परमश्रृद्धा से जो मेरी उपासना करते हैं वह मेरी मत में सबसे उत्तम योगी हैं !
बड़ा रहस्य युक्त्त जवाब है भगवान का ! भगवान जिसको कहा ही गया है बुद्धिवानों की बुद्धि तो इसलिए भगवान जवाब देते हैं कि
मैं जो हूँ , जैसा हूँ उस स्वरूप से याद करो , परमश्रद्धा से मेरी उपासना करो ! जो लोग अपनी इन्द्रियों को वश में करके , सबके प्रति समभाव रख करके , उस परम सत्य , अव्यक्त्त निराकार पर ध्यान एकाग्र करते हैं , वो समस्त लोगों के कल्याण में संलग्न रहकर अन्ततः मुझे प्राप्त करते हैं !
परन्तु जो लोग मन को परमात्मा के अव्यक्त्त निराकार स्वरूप के प्रति आसक्त्त करते हैं उनके लिए उनका देह अभिमान ही उनका पुरूषार्थ और उनके प्रगति में विध्न बनता है !
निराकार को जब याद करने बैठो तो सबसे बड़ा विध्न जो आता है वह देह अभिमान ही है !
ध्यान करने बैठो तो क्या होता है ? कभी घुटना दर्द कर रहा है और कभी पीठ दर्द कर रही है ! तो ये जो देह के साथ का लगाव है, ये लगाव हमारे लिए सबसे बड़ा विध्न बनता है !
इसलिए स्वयं के मन को इस देह के अभिमान से भी ऊपर उठा लो ! ‘मैं आत्मा हूँ’ स्वयं को इस भाव में स्थित करो !
फिर ये देह अभिमान बाधा नहीं बनेगा , विध्न नहीं बनेगा ! पुरूषार्थ के मार्ग में सबसे बड़ा विध्न यही बनता है ! साकार की पूजा करने में तकलीफ अर्थात् कोई मुशिकल नहीं होती है !
श्रीकृष्ण की पूजा करने में तकलीफ नहीं होती है ! क्योंकि वो मनोहारी स्वरूप को सामने देखते हैं ! कभी-कभी उसमें जैसे खो जाते हैं ! उस समय शरीर का भान विध्न नहीं बनता है !
लेकिन जैसे परमात्मा को निराकार अव्यक्त्त स्वरूप को याद करने का प्रयत्न करते हैं तो उस दिव्य स्वरूप को मानस पटल पर टिकाए रखने में मेहनत लगती है ! इसलिए वहाँ पर फिर देह अभिमान पुरूषार्थ के मार्ग में विध्न बनता है !
भगवान कहते हैं , हे अर्जुन !
तू अपने मन और बुद्धि को मुझमें एकाग्र कर ! अगर तू मन को मुझमें एकाग्र करने में समर्थ नहीं है तो योग का अभ्यास कर ! बार-बार अभ्यास कर ! यदि तुम योग का अभ्यास भी न कर सको तो सिर्फ मेरे प्रति ही यज्ञ कर्म करो !
आत्मा का शुद्धिकरण करना है यही यज्ञ है ! यदि तू यज्ञ करने में भी असमर्थ हो तो मन , बुद्धि और इन्द्रियों को वश में करके सम्पूर्ण कर्मों के फल का त्यागकर और आत्म स्थिति में स्थित होने का अभ्यास कर !
परमात्मा ने चार विकल्प दिए हैं !
- अगर तुम मेरे में मन को एकाग्र नहीं कर सको तो योगाभ्यास करो ! खास बैठ करके अभ्यास करो जितनी शारीरिक एकाग्रता होगी उतना मन की एकाग्रता को लाना सहज हो जाएगा !
- अगर बैठकर भी करना मुशिकल है, तो सेवा करो- यज्ञ सेवा ! अर्थात् अनेक आत्माओं को जीवन शुद्ध बनाने की प्रेरणा देना , ये सबसे बड़ी सेवा है !
- किसी को आत्म उन्नति का मार्ग बताना , ये सबसे बड़ी सेवा है ! ये सेवा कर्म करो ! उसके लिए समय निकालो !
- वो भी अगर नहीं कर सके तो मन, बुद्धि को एकाग्र कर आत्म स्थिति में स्थित हो जाओ ! ये चार विकल्प बतायें है परमात्मा ने लेकिन निराकार की ही आराधना , उपासना करने की प्रेरणा दी है !
फिर कहा कि अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है ! इसलिए ज्ञान को समझो ! ज्ञान से श्रेष्ठ ध्यान है और ध्यान से सर्व कर्म फल का त्याग श्रेष्ठ है ! जो कर्म करो उसे भूल जाओ ! समर्पण कर दो ईश्वर को अर्पण कर दो , ये फल भी तुम्हें अर्पण ! जो फल इसका मिलना है वो भी उसको अर्पण कर दो ! कर्म फल के त्याग से तत्काल ही शान्ति प्राप्त हो जाती है ! आसाक्त्ति खत्म हो गयी तो मन शान्त हो जाता है !
प्रिय आत्मा के लक्षण
- फिर भगवान ने प्रिय आत्मा के लक्षण बताए कि जो किसी से द्वेष नहीं करता और सर्व के प्रति मित्रता भाव रख कृपालु है, वह भगवान को प्रिय है !
- जो सदा सन्तुष्ट , दृढ़ और संयमी है वह भगवान को अति प्रिय आत्मा है !
- जो समर्पण बुद्धि है और कर्मयोगी है , वह भगवान को प्रिय है !
- जो न स्वयं क्रोध करता है और न किसी को क्रोधित करता है वह प्रिय है !
- जो निरपेक्ष , पवित्र और दृढ़ संक्लपधारी है , वह भगवान को अति प्रिय है !
- पुरूषार्थ में दृढ़ संक्लपधारी तो बनना ही है ! मन की भावनाओं को पवित्र तो रखना ही है !
- जो न अति हर्ष और न शोक , न कभी कोई बात में इच्छा रखता है , वह भगवान को अति प्रिय है !
- जो शत्रु , मित्र , मान , अपमान सुख-दुःख , निंदा-स्तुति में समान एवं क्षमाशील है , वह भगवान को अति प्रिय है !
- जो अनासक्त्त मितभाषी और दूषित संगति से सदैव मुक्त्त है ! वह भगवान को अति प्रिय है !
- जो धर्ममय अमृत पथ का श्रद्धा से अनुसरण करता है वह भगवान को अति प्रिय है ! इतने लक्षण वाले भगवान को अतिप्रिय लगते हैं !
- इसलिए कर्मयोगी माना इन लक्षणों को जितना हो सके , उतना अपने जीवन में विकसित करते जाएं ! अपने आपको भगवान के प्रिय बनाते चलें !
👏 इस प्रकार बारहवें अध्याय में परमात्मा ने अपने प्रिय अर्जुन अर्थात् हर मनुष्य के लिए प्रशनों के उत्तर दिये !
साकार भक्त्ति अर्थात् याद से निराकार भक्त्ति श्रेष्ठ है !
फिर भगवान की प्रिय आत्मा के लक्षण बताए हैं ! उन लक्षणों के आधार पर कैसे हर संधर्ष में विजयी बनना है ! ये प्रेरणा दी है ! अब अपने मन को बाह्य सभी बातों से समेट लें ! योगाभ्यास के लिए अपने मन को शुद्ध संक्लप देते जायेंगे, दृढ़ता पूर्वक बैठेंगे, जितनी शारीरिक एकाग्रता को हम बना सकते हैं, उतनी मन की एकाग्रता को ले आना सहज और स्वाभाविक होगा ! इसलिए दृढ़ता पूर्वक अभ्यास करें !
साथ ही साथ मन को परमात्मा की स्मृति में ले चलते हैं ! अपने मन को शुद्ध संक्लप देते चलें ! अंतर्चक्षु धीरे-धीरे खुलता जा रहा है ! परमात्मा के दिव्य स्वरूप को हम सभी ने जान लिया, समझ लिया है ! अब उस अंतर्चक्षु के सामने परमात्मा के दिव्य स्वरूप पर, हम अपने मन और बुद्धि को एकाग्र करेंगे !
निराकार की भक्त्ति का अभ्यास कमेंट्री ( Commentry) :-
💫 For meditation 💫
अपने मन को...शुद्ध संक्लपों में स्थित करें...उसी भाव को जागृत करें...कि मैं देह नहीं...एक शुद्ध श्रेष्ठ आत्मा हूँ... परमात्मा की..अति प्रिय संतान हूँ...अन्तर्चक्षु से...स्वयं के दिव्य स्वरूप को..भृक्रुटी के मध्य में देखें...मैं ...अति सूक्ष्म.. दिव्य.. प्रकाशपुंज हूँ.. धीरे-धीरे...अपने मन और बुद्धि को..पंच तत्त्व के देह से..ऊपर उठाते जायें..पंच तत्व के देह के बन्धन.. मुझ आत्मा को खींच नहीं सकता है... पर मैं अपने मन और बुद्धि.. को ले चलती हूँ.. आध्यात्मिक पुरूषार्थ के पथ पर...चलते हैं एक यात्रा पर ...परमधाम की ओर ..पंचतत्व की दुनिया से दूर ..देह और देह के सम्बन्धों से भी ...मन को मुक्त्त करते हुए ..सूर्य , तारागण से भी पार ..परमधाम में ...जहाँ चारों ओर... दिव्य प्रकाश फैला हुआ है... अन्तर्चक्षु से स्वयं को उस दिव्य लोक में... अव्यक्त्त रूप में.. देख रही हूँ... जहाँ में आत्मा.. सम्पूर्ण... सतोगुणी स्वरूप में...परमात्मा के समान प्रकृति को धारण की हुई... मेरे पिता परमात्मा.. दिव्य प्रकाशपुंज हैं... अन्तर्चक्षु से मैं ...उस दिव्य असीम स्वरूप ...को निहार रही हूँ.. हज़ारो सूर्य से तेजोमय स्वरूप.. शीतल प्रवाह ..नित्य प्रवाहित हो रहा है.. सर्वशक्त्तिमान ..सर्वोच्च शक्त्ति.. निमार्ण और पवित्र स्वरूप...कितना असीम और दिव्य.. रूप मैं अपने अन्तर्चक्षु से देख रही हूँ.. ज्ञानयुक्त्त बुद्धि से...आज मैने परमात्मा के...इस असीम ऐश्वर्य ..सौंदर्य को देखा है.. जाना है.. समझा है... और मेरा अज्ञान का अंधकार.. दूर हो गया है... अब तक...मैने कितने प्रयत्न किए..उसको जानने और समझने के लिए... लेकिन आज मेरे सामने ..ये दिव्य स्वरूप.. अपने असीम सौंदर्य से युक्त्त.. कुछ क्षण के लिए.. मन को इस दिव्य स्वरूप में ..एकाग्र करते हैं.. और परमात्मा के...असीम प्यार में.. समाते जाते हैं... अनन्य भाव से..उस परमात्मा में.. श्रद्धा के साथ.. मन और बुद्धि को...समर्पण करते हैं... और सर्व सम्बन्धों का सुख.. उस परमात्मा के...सानिध्य में.. रहते हुए...अनुभव करते हैं... भगवान.. मेरे मात-पिता हैं... परमशिक्षक हैं.. परमसतगुरू हैं... जिसके वरदानों से...मेरा जीवन.. धन्य-धन्य हो रहा है.. वही मेरा खुदा दोस्त हैं.. जीवन साथी हैं.. मेरे प्रियत्तम हैं... भगवान मेरे साथी हैं... सर्व सम्बन्धों के ...सुख का अनुभव.. अपने मन और बुद्धि में समाते हुए..धीरे-धीरे ..मैं अपने मन और बुद्धि को वापिस..इस पंच तत्व की दुनिया की ओर.. शरीर में.. भृक्रुटी के मध्य स्थित करती हूँ... और शरीर में... सर्व इन्द्रियों में... रोम-रोम में... उस परमात्म शक्त्ति को...प्रवाहित करती हूँ....
ओम् शान्ति... शान्ति... शान्ति.. शान्ति...!