गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य (तीसरा और चौथा अध्याय)
“स्वधर्म, सुख का आधार”
The Great Geeta Episode No• 024
उनके बाद अर्जुन एक प्रशन भगवान से पूछता है कि
मनुष्य की बुद्धि भ्रष्ट हो जाने का कारण क्या है ?
उसका मार्ग कौन सा है ?
भगवान ने उसका उत्तर दिया कि
विषयों का चिंतन करने वाला पुरूष , विषयों और विकारों में आसक्त्त हो जाता है , और आसक्त्ति से कामना उत्पन्न होती है ,
अविवेक से स्मरण शक्त्ति भ्रमित हो जाती है तो योग परायण बुद्धि भी नष्ट हो जाती है !
अतः निष्काम कर्मयोग को बुद्धि योग कहा जाता है ! इसलिए बुद्धि का योग ईश्वर से जोड़ने की बात कहीं गयी है !
तब हम अपनी सारी कमज़ोरियों के ऊपर विजय पा सकते हैं और योग परायण बुद्धि विकसित कर सकते हैं !
फिर अंत में भगवान ने कहा कि योग साधना रहित पुरूष के अन्तःकरण में निष्काम कर्म युक्त्त बुद्धि नहीं होती है !
अयुक्त्त के अतःकरण में भाव नहीं होता है और भाव रहित पुरूष को शान्ति नहीं मिलती है !
अशांत पुरूष को सुख अथवा सनातन शाश्वत् की प्राप्ति नहीं हो सकती है ! अर्थात् दूसरे शब्दों में कहें कि योग माना ही स्वयं को वश करने का विज्ञान या स्वयं के भीतर अपनी इन्द्रियों को वश करने का विज्ञान है इसलिए योग को कला और विज्ञान दोनों कहा जाता है !
विज्ञान क्यों कहा गया कि जहाँ पर तर्क संगत रूप से हर बात को समझाया जाता है ! स्टेप ( Step) बाई स्टेप उसको स्पष्ट किया जाता है !
भगवान ने अर्जुन को हर बात इतनी लॉजिकली ( Logically ) स्पष्ट की हुई है , तब अर्जुन का वो अज्ञान दूर होता है इसलिए योग को स्वयं को सुसंस्कृत अर्थात् सभ्य करने का विज्ञान कहा गया है !
परेशान मन वाला व्यक्त्ति , कभी खुश नहीं रह सकता है ! अपनी आत्म-उन्नति के प्रति उदासीन रहने वाला व्यक्त्ति वास्तव में अपने ही विनाश के मार्ग पर आगे बढ़ता है !
इसलिए स्वयं को जितना ‘ स्व अनुशासन ‘ में ला सकें उतनी ही हम अपने जीवन में योग की सिद्धि को प्राप्त करेंगे और शिखर पर पहुंचकर जीवन की ऊँचाईयों को छू सकते हैं ! ये अनुभव है !
इस अनुभव के आधार पर भगवान ने यहाँ पर दूसरा अध्याय समाप्त किया !
यहाँ अर्जुन सबसे महत्त्वपूर्ण प्रशन भगवान के आगे जो रखता है वह यह की
ज्ञानयोग श्रेष्ठ है या कर्मयोग श्रेष्ठ है ?
अर्जुन के जितने भी प्रशन वास्तव में देखे जाएं तो ये हम के सभी के मन के प्रशन हैं कि ज्ञानयोग श्रेष्ठ है या कर्मयोग श्रेष्ठ है ?
भगवान ने बहुत सुन्दर जवाब दिया-
ज्ञानियों के लिए ज्ञान मार्ग और योगियों के लिए निष्काम कर्म मार्ग श्रेष्ठ है !
दोनों ही मार्गो के अनुसार कर्म तो करना ही पड़ता है !
कर्म अनिवार्य है , ये नहीं कि ज्ञानियों को कर्म नहीं करना पड़ता है !
ज्ञानियों को भी अपना निजी कर्म तो करना ही पड़ता है ! सभी पुरूष प्रकृति से उत्पन हुए गुणों द्वारा विवश होकर कर्म करते हैं !
जो पुरूष मन से इन्द्रियों को वश में करके , अनासक्त्त होकर कर्मेन्द्रियों से कर्मयोग का आचरण करता है तथा अपने शरीर निर्वाह अर्थ कर्म करते हुए आध्यात्मिक पुरूषार्थ में उन्नति करता है , वही श्रेष्ठ है !
प्रशन:-आध्यात्मिकता का मतलब क्या है ?
आध्यात्मिकता का मतलब है अध्ययन द्वारा आत्म-उन्नति को प्राप्त करना !
किस बात का अध्ययन करना ? गीता में भगवान ने जो ज्ञान दिया है जितना हम उसका अध्ययन करते हुए अपने पुरूषार्थ में आगे बढ़ते हैं और उन्नति को प्राप्त करते हैं , उसे ही आध्यात्मिकता कहा जाता है !
भगवान ने आगे यज्ञ का महत्व बतलाया कि कर्मयोग मानव का सनातम कर्म है , कर्तव्य है !
यहाँ बहुत सुन्दर गुह्य रहस्य स्पष्ट किया गया है कि यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है !
अब इसका मतलब ये तो नहीं है कि हम सभी गृहस्थियों को कहें कि हर रोज़ नित्य यज्ञ करते रहें !
किसी के पास इतना समय कहाँ है ? लेकिन यज्ञ का भावार्थ यहाँ क्या है ? इसको थोड़ा आगे स्पष्ट पड़ेगा……