गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य (तीसरा और चौथा अध्याय)
“स्वधर्म, सुख का आधार”
The Great Geeta Episode No• 019
सर्व शास्त्रमयी शिरोमणि श्रीमदभगवदगीता जो भगवान की मधुर वाणी है वह हम सर्व अर्जुन के प्रति मधुर संदेश है कि हमें जीवन को किस तरफ जीना है !
प्रथम भाग में हमने देखा कि किस प्रकार से गीता का अस्तित्व हम सब के सम्मुख आया ! उसी के साथ-साथ अर्जुन जैसे एक महवीर , महायोद्धा जिसकी भी मनःस्थिति से उसको बाहर निकालने के लिए भगवान ने सर्व प्रथम उसको आत्मा का याथार्थ ज्ञान दिया !
आत्मा का ज्ञान देते हुए यही समझाया कि यह शरीर तो एक वस्त्र मात्र है जबकि आत्मा , अजर , अमर , अविनाशी है अर्थात् जो सदियों से हम सुनते आए है कि अपने आप जानो , अपने आपको पहचानो वही पहचान अर्जुन को स्वयं से करायी की शरीर एक साथन है और आत्मा एक साधक है !
वह एक दिव्य और शाश्वत् शक्त्ति है , जिसके ऊपर प्रकृति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है !
लेकिन हाँ , आत्मा के संस्कारों में हम जितना सदगुणों का विकास करते हैं , उतना ही हम आत्मा की शक्त्ति को वा आत्मा की आभा को बढ़ाते हैं तथा उसके दिव्य तेज को विकसित करते हैं !
जितना हम दुर्गुणों को अपने जीवन में स्थान देंगे , आत्मा की चमक भी उतनी ही कम होती जाती है !
जब हम छोटों बच्चों को देखते हैं कि उनका कितना निर्मल और पवित्र स्वरूप होता हैं ! ये आत्मा की वास्तविकता है !
इसलिए जहाँ कहीं हम पवित्र वातावरण में जाते हैं तो एक गहन शान्ति का अनुभव करते हैं !
इसी प्रकार आप जब अपवित्र वायब्रेशन में जायेंगे तो वहाँ मन बेचैन और परेशन हो उठता है !
आत्मा स्वाभाविक रूप से पवित्र है , यही उसका निजी स्वरूप है ! जब हम ईश्वर के धाम अर्थात् परमधाम से इस संसार में आए थे तो उसी स्वरूप में आए थे !
हम आत्माओं की बैट्री फुल चार्ज थी अर्थात् सातों गुणों -ज्ञान , प्रेम , पवित्रता , सुख , शान्ति और आनन्द से भरपूर थे !
गीता में भी मनमवाभव अक्षर है , भगवान मनमनाभव का अर्थ बतलाते है कि देह के सब धर्म छोड़ अपने को आत्मा निश्चय करो तो सभी दुखों से छूट जायेंगे !