गीता ज्ञान का आध्यात्मिक रहस्य (पहला और दूसरा अध्याय)
“गीता-ज्ञान, एक मनोयुद्ध या हिंसक युद्ध”
The Great Geeta Episode No• 013
- इस तरह से हम देखते हैं कि अर्जुन स्वयं को ईश्वर का शिष्य निश्चय करके अपने दुःख और समस्या को दूर करने का आग्रह करता है !
- यह अध्याय वास्तव में सम्पूर्ण रूप से गीता का सार प्रस्तुत करता है !
- इसके अंतर्गत विभिन्न विषयों पर अत्यंत विस्तारपूर्वक विचार किया गया है ! जैसे कर्मयोग , ज्ञानयोग , सांख्ययोग बुद्धियोग !
- भावार्थ ये है कि जब बुद्धि काम न करे तो ईश्वर के शरणागत हो , उसे स्वीकार कर लें और अपनी बुद्धि को उसे समर्पित कर दें !
- भगवान एक ऐसी चेतना है , जो हमें अधंकार में भी प्रकाश की किरण , आशा की किरण दिखाते हैं !
- भावार्थ ये है जैसे थके हारे मन और निर्णय ले पाने में असमर्थ बुद्धि के कारण व्यक्ति कई बार डिप्रेशन में चला जाता है , दिलशिकस्त हो जाता है और मन को सही दिशा में ले जाने के लिए आवश्यक शक्त्ति का अभाव रहता है , ऐसे समय पर हमें आशा की किरण दिखाई पड़ती है जब स्वयं ईश्वरीय बौद्धिक सत्ता हमारा मार्ग निर्देशन करती है !
“भगवान मनुष्य के मन को भ्रमित करने वाले अनेक प्रशनों का उत्तर देते हैं और ये सत्य ज्ञान देते हैं कि तुम शरीर नहीं ‘ आत्मा ‘ हो , देह से भिन्न , सूक्ष्म शक्त्ति , चैतन्य आत्मा हो !”
- वह शण मात्र भी कर्म के बिना नहीं रह सकता है ! इसलिए उसको कर्मक्षेत्र या कुरूक्षेत्र कहते हैं !
- भगवान सबसे पहले अर्जुन को युद्ध के विधि-विधान बताते हैं कि सुख-दुख , सर्दी-गर्मी मान-अपमान को सहन करना एक भारतवंशी पर निर्भर करता है !
- भावार्थ ये है- गीता के दूसरे अध्याय में सबसे पहला विधान भगवान यही बताते हैं कि भारतवंशी का सबसे बड़ा संस्कार है ‘ सहन करना ‘ !
- तो वह युद्ध कैसे करेगा ? इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह ‘मनोयुद्ध’ की बात है कोई ” हिंसक युद्ध ” की बात नहीं है !
- भगवान अगर हिंसक युद्ध की प्रेरणा दे तो आज के संसार में जो मनुष्य हिंसक युद्ध करने की प्रेरणा दे रहे हैं फिर उनमें और भगवान में अन्तर ही क्या रह जायेगा !
- दुनिया के मनुष्य हिंसक युद्ध की प्रेरणा दे सकते हैं लेकिन भगवान जो मनुष्य को ऐसे घृणित कार्य से ऊपर उठाते हैं , वे यह प्रेरणा कैसे दे सकते है ?
भगवान गीता में सूक्ष्म अति सूक्ष्म भावों को स्पष्ट करते हैं ! एक अजर-अमर अविनाशी शक्त्ति की ओर इशारा देते हुए कहते हैं कि आत्मा में कितनी शक्त्ति है , कितनी क्षमता है, इस बात को स्पष्ट करते हैं !
- विषयों में चित वा वृत्तियाँ उसी प्रकार विषयाकार बन जाती हैं , जैसे जल साँचे के अनुसार अपना आकार बना लेता है !
- ये क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के बीच का संधर्ष है ! जिसमें आसुरी वृत्ति का सवर्था शमन कर परमात्मा में चित्त, वृत्ति को एकाग्र करता है !
- सुख-दुख को समान समझने वाला धीर पुरूष अर्थात् आत्मा इंद्रियों और विषयों के संयोग से व्यथित नहीं होता है !
वह अमृतत्व की प्राप्ति के योग्य बन जाता है ! ये है युद्ध का पहला विधि-विधान !