आदि देवी जगदम्बा सरस्वती
1919 में अमृतसर में जन्मी कन्या राधे अनुपम
मानव इतिहास में, आपकी थी भूमिका स्वर्णिम
प्रतिभाशाली, फैशनेबल व होनहार थीं आप,
गायन वा नृत्य कला द्वारा छोड़ देती थीं छाप
किशोरावस्था में ही भगवान् शिव का मिला परिचय,
भागीरथ में शिव से मिलकर गुणों का किया संचय
सेकंड में ही किया जीवन का फैसला सबसे महत्वपूर्ण
चुना शिव को अपना परम साजन व साथी सम्पूर्ण
शीघ्र ही, मातृत्व व पालना के गुणों से हुईं संपन्न,
ईश्वरीय बगीचे में बिखेरने लगीं खुशबू चेतन
पवित्रता के विरुद्ध सिंध प्रान्त में हुआ विरोध भरपूर
आपकी पावन दृष्टि, ओ माँ शीतला तोड़ देती गुरूर
जब पिता श्री ब्रह्मा बाबा के नाम आया कोर्ट से बुलावा,
शेरनी की भांति कोर्ट में स्पष्ट किया सच, रद्द हुआ दावा
हरेक ईश्वरीय निर्देशन का पालन किया सम्पूर्ण रीति
इन्हीं गुणों से बनीं ॐ राधे से मम्मा निभाकर प्रभु प्रीति
आप ही वैष्णो माँ वा शिव की संगिनी – पार्वती, सती
ज्ञान वीणा बजाकर कहलाई ज्ञान की देवी सरस्वती
धारणा व ईश्वरीय सेवा द्वारा पाया लक्ष्मी का सर्वश्रेष्ठ पद
सदा लक्ष्य पर केंद्रित रहकर बनीं लोक व प्रभु पसंद
पवित्रता की शक्ति से कितनों को किया परिवर्तन,
गंभीरता, गुप्त पुरुषार्थ, निर्माणता करती आकर्षण
असाध्य रोग में भी बनी रहीं पवित्रता की मूर्त, मीठी माँ
अंत तक निभाए सर्व कर्तव्य, देकर के शीतलता की छां
धन्य हैं वे जिन्हें मिला आपका सानिध्य, ओ ज्ञान की देवी
24 जून 1965 को हुईं अव्यक्त, ह्रदय में समाई रहती छवि
आपकी मीठी यादें सदा भरती रहेंगी हम में शक्ति
आप सा बनकर हम करेंगे प्यार की अभिव्यक्ति
प्रजापिता ब्रह्मा बाबा के पश्चात् जगदम्बा | सरस्वती का स्थान तो अपनी रीति से सर्व महान् | है। यज्ञ की स्थापना में उनकी शिरोमणि पवित्रता, घोर तपस्या, अटूट निश्चय इत्यादि की तो जितनी | महिमा की जाये उतनी ही कम है। जिन्होंने उनके | मुख-मंडल को देखा है, उनसे पूछिये कि वे कुदरत की क्या कमाल थीं! उनको देख कर तो महा अज्ञानी भी कह उठता था।
"माँ, ओ माँ। तेरी ठण्डी छाँ! तेरी शीतल बाँ! तेरी हाँ में हाँ, ओ माँ! तू ले जा चाहे जहाँ, हमें दिखता आसमाँ, भूल गया जहाँ ! माँ ओ माँ! …."
कैसी थी वो भीनी-भीनी मुस्कराहट जो शिव और ब्रह्मा ने ज्ञान-रंग से चित्रांकित की हो! उस मुस्कराहट को देख कर तो रोना सदा के लिए बन्द हो जाता। वे निर्मल नैन जिनसे योग-तपस्या की प्रकाश-रश्मियाँ जिस पर पड़ती, उसे भी योग के पंख पर बिठा कर फर्श से अर्श पर ले जाती।
उनका वह दिव्य व्यक्तित्व ही ऐसा था कि वे एक अहिंसक सेना की सेनापति दिखायी देती थीं। उनकी चाल-ढाल ही ऐसी थी कि जिसमें ‘योग’ ‘और ‘राज’ मिलकर उसे इतना भव्य दिव्य, सुसभ्य बनाते थे कि बात मत पूछिये।
जिस किसी को भी उनका स्पर्श मिला, उसने अनुभव किया कि उसकी इन्द्रिय चंचलता शान्त हो चली। जिस समय किसी ने उनके कमरे में प्रवेश किया तो |
देखा कि वे समाधिस्थ हैं, तपस्यारत हैं अथवा | हंस- माता के रूप में ज्ञान-रत्नों को धारण किये | हैं। क्या जादू था उनकी तस्वीर में! क्या सुगन्धि थी उनके व्यवहार में ! कैसी महक थी उनके कर्मों में! जिसने उन्हें परिचययुक्त दृष्टि से देखा, उसका तो जीवन ही सफल हो गया।
अतः हम सभी का कैसा सौभाग्य है कि हम ब्रह्माकुमार या ब्रह्मा – वत्स भी हैं और सरस्वती- – पुत्र अथवा सरस्वती – पुत्री भी हैं। लोग जिस देवी को विद्यादायिनी के रूप में विद्या का वरदान पाने के लिए पुकारते हैं, स्वयं उन्हीं के पुनीत हाथों से हमने अमृत पीया, स्वयं उनकी मुख-वीणा से ज्ञान की स्वर्ग-सुखदायिनी झंकार सुनी।
उनके वरद हाथों ने हमारे सिर पर प्यार बरसाया। उनकी ज्ञानमयी गोद के हम सुत हैं। हमारे इन नेत्रों ने सरस्वती को इस धरा पर खड़े, बैठे, चलते देखा। हमने यदि और कुछ भी न पाया, क्या यह कम बात है? संसार में इससे अधिक सुन्दर दृश्य और कोई हो सकता है क्या?
- वह दिव्यगुणों की खान थीं। वह मदर-ए-जहान थीं। वह न होतीं तो कुछ भी न होता। वही तो प्रजापिता ब्रह्मा के मुख द्वारा परमात्मा शिव का ईश्वरीय ज्ञान सुनकर सभी यज्ञ – वत्सों को समझाती थीं।
- वह तो उनके सामने ज्ञान एवं योग का नमूना थीं। सभी यज्ञ- वत्सों को सम्भालने के लिए वही तो निमित्त थीं। उन्हें प्रजापिता ब्रह्मा के समकक्ष स्थान पर बैठकर प्रतिदिन ज्ञान – वीणा वादन का अधिकार था।
- उन्हीं मातेश्वरी ने दुर्गा का रूप धारण करके यज्ञ- दुर्ग की रक्षा की, विघ्नों का सामना किया। जनता और सरकार द्वारा आयी विपत्तियों को झेला। भिन्न-भिन्न संस्कारों वाले यज्ञ-वत्सों को संस्कारों की भट्ठी में से उन्हीं ने ही उज्ज्वल किया और एक-एक को ज्ञान- लोरी सुनाकर, ज्ञान-पालना दी। वही तो प्रथम शीतला माँ, सन्तोषी माँ और अन्नपूर्णा थीं।
- स्वयं प्रजापिता ब्रह्मा उन्हें माला के युग्म मणके में स्थान देते, उन्हें ‘यज्ञ-माता’ की उपाधि देते तथा आदरणीया मानते थे। उन्हीं को आगे रख कर वे उदाहरण देते थे कि सभी “पुरुषों” को चाहिए कि बहनों-माताओं को आगे रखें।
- बाबा स्वयं कई बार उन्हें रेलवे स्टेशन तक छोड़ने जाते। मैं लगभग 50 देशों में गया हूँ, रूप-लावण्य में अनेकानेक सुन्दर नारियाँ भी देखी होंगी क्योंकि आँख बन्द करके यात्रा तो नहीं करता था।
- विद्वता, समाज सेवा, प्रशासन और वक्तत्व में अग्रणी महिलाओं को भी देखा परन्तु माँ की दिव्यता, उनकी शालीनता, उनका सौन्दर्य स्वर्गिक था उनका विवेक अद्वितीय था।
- वे मानवता से ऊपर उठकर पवित्र-पुनीत हंस वर्ण की थीं। उन्हें देख कर कोई पातक हो, घातक हो, चातक हो, सभी कहेंगे- “माँ”। वें पृथ्वी पर होते हुए भी पृथ्वी पर नहीं थीं।
- उनकी आध्यात्मिक चेतना, उनका योग प्रकाश ऐसा था कि देखने वाला भी शरीर को भूल कर आत्मनिष्ठ हो जाता था। आत्मनिष्ठ न भी हो तो भी उसमें आध्यात्मिक चेतना जाग उठती थी।
- कम-से-कम थोड़े समय के लिए तो उनके तमोगुणी और रजोगुणी संस्कार बन्द हो जाते थे और उनकी जगह सतोगुण का उदय होता था। ऐसी थी हमारी जगदम्बा सरस्वती माँ !
माँ, तुझे शत्-शत् प्रणाम!
माँ, ओ माँ तेरी शीतल छाँ! तेरी हाँ में हाँ हमें दिखता है आसमाँ ।
तेरी वरदायिनी बाँ,
ओ माँ!!!
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