भगवान महावीर भारत के आध्यात्मिक महाकाश के जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं। महावीर एक ऐसे ज्योति पुंज हैं, जिन्होंने समस्त धराधाम को अपनी तेजस्विता से आलोकित कर दिया तथा अहिंसा, प्रेम और करुणा का अमर संदेश देकर मानव को नव चेतना प्रदान की। महावीर का जीवन दर्शन वस्तुतः सत्य की ही अभिव्यक्ति है, उनके उपदेश वैयक्तिक तथा सामाजिक जीवन के सुख एवं शान्ति देने में सक्षम है। जैन धर्म में 24 तीर्थंकर हुए, जिनमें महावीर 24वें और अंतिम तीर्थंकर थे। महावीर का जन्म, कुंडलपुर में 2540 वर्ष पूर्व हुआ था। इनके जन्म से पिता सिद्धार्थ एवं माता त्रिशला धन्य हो गयी। महावीर जी ने अपने जीवन काल में वीर, अतिवीर, महावीर, और वर्धमान जैसे नामों को सार्थक किया। इनके जन्म दिवस को महावीर जयंती के रूप में मनाया जाता है।
समाज में व्याप्त चतुर्दिक हिंसा के वातावरण में महावीर ने उदघोष किया ‘ अहिंसा परमो धर्म:’। महावीर ने प्रचलित हिंसात्मक मान्यताओं और रूढ़ियों के विरोध में सशक्त स्वर उठाकर समाज को पाखंड से उन्मुक्त किया। तत्वदर्शी महावीर के उपदेश का मेरुदंड अहिंसा है। कर्मकांड के नाम पर प्रकीर्ण हिंसा को चुनौती दी और अंधविश्वास पर कुठाराघात किया। इस रूप में क्रान्तिकारी कहा जा सकता है, किन्तु वास्तव में महावीर तीर्थंकर संत थे। उनकी आत्मा समाज़ में व्याप्त शोषण, स्वार्थपरता, परिग्रहजन्य विषमता, निर्दयता और हिंसा को देखकर चीत्कार कर उठी और दया-द्रवित होकर उन्होंने अहिंसा तथा प्रेम का सन्देश दिया।
अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य
सत्य की साधना के लिए तरुण राजपुत्र महावीर ने तीस वर्ष की आयु में राज्य-वैभव तथा अतुल धन का प्रलोभन छोड़कर सन्यास ले लिया और तपस्या के द्वारा सत्य का साक्षात्कार किया। तदन्तर उन्होंने देशाटन किया और जीव कल्याण का मार्ग दिखाकर मानव मात्र का अकथनीय उपकार किया। उनकी वाणी में ओज़ और व्यक्तित्व में अद्भुत सम्मोहन था। उनके आध्यात्मिक तेज ने सबको चमत्कृत कर दिया और उनकी ज्ञान ज्योति से प्रकाश विकिरण होने लगा। भगवान महावीर भारत के क्षितिज पर दैदीप्यमान ज्योति बनकर चमके और उनका ध्रुव प्रकाश सदैव मानवमात्र का का पथ प्रदर्शन करता रहेगा।
5 विकार का प्रभाव
- समाज़ में व्यापक अशान्ति, विद्रोह, विप्लव और हिंसा होने का कारण अहंकारजन्य भेदभाव विषमता एवं दुर्भावना होते हैं।
- समाज़ में उतना असंतोष अन्न आदि किसी वस्तु का अभाव के कारण नहीं होता जितना प्रशासक एवं समूह वर्ग की दूषित वृति अथवा उनके अहंकार एवं सद्भावना विलुप्ति के कारण होता है।
- अहंभाव से संकीर्ण स्वार्थ और शोषण वृति का जन्म होता है। अहंकार संतुष्टि के लिए ही मनुष्य परिग्रहपरायण, क्रूर तथा हिंसक हो जाता है।
- अहंकार से ही ईर्ष्या-द्वेष, घृणा, क्रोध एवं हिंसा उत्पन्न होती है। घृणा और क्रोध अनन्तानुबंधी होते हैं तथा पत्थर की लकीर की भांति गहरे गड़कर मन को विकृत कर देते हैं।
- कालान्तर में पीड़क के मन में प्रतिशोध जागता है। क्रोध मनुष्य के तप, संयम, दान का पुण्य हर लेता है।
- क्रोध मूर्ख को ही होता है, ज्ञानियों को नहीं। इसलिए कहा गया है की अहंकार शून्य होने पर व्यक्ति परमात्मा का साक्षात्कार कर लेता है।
- प्रत्येक प्राणी जीना चाहता है और मरना कोई नहीं चाहता, अतएव प्राणीवध पाप है, लेकिन मनुष्य की लपलपाती जीभ तृष्णा ने सारे विश्व को एक विशाल वधशाला में बदल दिया है।
अहिंसा हमें ‘जियो और जीने दो’ का पाठ पढ़ाती है। जहाँ आत्मा में राग-द्वेष नहीं होता, वहीं पूर्ण अहिंसा का उदय होता है। किन्तु आज प्रत्येक व्यक्ति आवेश का, पक्षपात का जीवन जी रहा है। आज की सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि अहिंसा के जितने प्रतिष्ठान स्थापित हैं क्या उनमें अहिंसा का शोध प्रयोग हो रहा है? क्या कहीं हृदय परिवर्तन का प्रयोग किया जा रहा है? यह सुनने को मिलेगा कि साम्यवादी देश में ब्रेन-वॉश का प्रशिक्षण चल रहा है। किन्तु कहीं भी अहिंसा का प्रशिक्षण दिया जा रहा हो ऐसा सुनने में नहीं आता। हाँ सिर्फ जैन मतावलंबियों और ब्रह्मा कुमारी संस्थाओं में अहिंसा एवं हृदय परिवर्तन विषय में सेमिनार गोष्ठियाँ और चर्चा होती रहती है और इस कार्य में वे पूर्ण ज़ोर से लगे हुए हैं।
भगवान महावीर ने अहिंसा का अत्यंत व्यापक अर्थ किया और सब प्रकार की हिंसा को पूर्णतः त्याज्य कहा। अहिंसा केवल कायिक एवं बहिरंग ही नहीं बल्कि मानसिक और अंतरंग भी होती है। भगवान महावीर ने पूर्ण अहिंसा पालन का अद्भुत उदाहरण पेश किया तथा जीवन में अहिंसा के महत्व को प्रतिपादित किया। मानव के समस्त विकास का मूलाधार प्रेम है। हिंसा, घृणा विष है, अहिंसा प्रेम अमृत है।
अहिंसा के साथ सत्य, अस्तेय, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जुड़े हुए हैं, ये पंचव्रत है जिनका पालन करने से व्यक्ति एवं समाज के जीवन में सच्ची समृद्धि एवं शांति की उपलब्धि हो सकती है। जिसके मन में जीव मात्र के लिए प्रेम एवं मैत्री के भाव छलछलाते हैं तथा सबके प्रति समानता का भाव है, जिसका अंतःकरण निर्मल है जो देहाभिमान से मुक्त है, जो दूसरों पर शासन नहीं करता और अपने ऊपर पूर्ण शासन करता है, जो स्वयं व्यक्तिगत इच्छा रहित है, जो धन, सत्ता, यश के प्रलोभन एवं राग द्वेष से मुक्त है और सबके कल्याण में रत है, जो करुणा दया और क्षमा से परिपूर्ण है, जो परनिन्दा और स्वकीर्तिमान में रुचि नहीं लेता, जो सर्वत्र आत्मा का दर्शन करता ही, उसके सभी शुद्ध संकल्प पूर्ण होते हैं। ऐसा व्यक्ति शक्ति का भंडार होता है तथा रसमयता का स्त्रोत बनकर विश्व को सुख शांति से आप्लावित कर देता है। मानव को यह सीखना ही होगा कि अहिंसा उसके अस्तित्व, सुख एवं शांति के लिए नितांत आवश्यक है।
महावीर जी के सिद्धांतों में अद्भुत क्षमता है। हमें चाहिए कि जिस तरह विनाशकारी ताकतों ने हिंसा को ‘ग्लोबलाइज’ किया है हम भी अहिंसा
की हैसियत और ताकत का ग्लोबलाइज़ेशन करें और दुनिया को बता दें कि अहिंसा कि झोली में ऐसी विलक्षण शक्ति है, जो सम्पूर्ण विश्व को हिंसा के इस दौर से मुक्त कर सकती है।
अहिंसा से हिंसा के शमन का क्रम अनवरत चले तो इक्कीसवीं शताब्दी में श्वास लेने वाला मनुष्य अहिंसक समाज की स्थापना कर पाएगा। और तभी भगवान महावीर के उपदेश सार्थक हो सकेंगे।